अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 126/ मन्त्र 4
सूक्त - वृषाकपिरिन्द्राणी च
देवता - इन्द्रः
छन्दः - पङ्क्तिः
सूक्तम् - सूक्त-१२६
यमि॒मं त्वं वृ॒षाक॑पिं प्रि॒यमि॑न्द्राभि॒रक्ष॑सि। श्वा न्व॑स्य जम्भिष॒दपि॒ कर्णे॑ वराह॒युर्विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
स्वर सहित पद पाठयम् । इ॒यम् । त्वम् । वृ॒षाक॑पिम् । प्रि॒यम् । इन्द्र॒ । अ॒भि॒रक्ष॑सि ॥ श्वा । नु । अ॒स्य॒ । ज॒म्भि॒ष॒त् । अपि॑ । कर्णे॑ । व॒रा॒ह॒ऽयु: । विश्व॑स्मात् । इन्द्र॑: । उत्ऽत॑र ॥१२६.४॥
स्वर रहित मन्त्र
यमिमं त्वं वृषाकपिं प्रियमिन्द्राभिरक्षसि। श्वा न्वस्य जम्भिषदपि कर्णे वराहयुर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥
स्वर रहित पद पाठयम् । इयम् । त्वम् । वृषाकपिम् । प्रियम् । इन्द्र । अभिरक्षसि ॥ श्वा । नु । अस्य । जम्भिषत् । अपि । कर्णे । वराहऽयु: । विश्वस्मात् । इन्द्र: । उत्ऽतर ॥१२६.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 126; मन्त्र » 4
भाषार्थ -
(इन्द्र) हे परमेश्वर! (त्वम्) आप, (यम् इमम्) जिस इस (प्रियम्) प्रिय (वृषाकपिम्) वृषाकपि की (अभि रक्षसि) रक्षा करते हैं, मानो (अस्य कर्णे अपि) इसके कान में भी (नु) निश्चय से (श्वा) कुत्ते ने (जम्भिषत्) काट लिया है, (वराहयुः) जो कुत्ता कि वराह का पीछा करता है। (विश्वस्मात्০) पूर्ववत्।
टिप्पणी -
[“श्वा” का अर्थ है—कुत्ता, और वराह का अर्थ है—सूअर। सूअर महा-अपवित्र होता है, और कुत्ता कुछ कम अपवित्र। अपवित्रता में कुत्ता अनुगामी है सूअर का। इसलिए कुत्ते को वराहयुः कहा है। वराहयु का अर्थ है—“वराहमनु याति,” जो कि वराह का अनुगामी है। वराहयुः=वराह+या+कुः; यथा मृगयुः (उणादि कोष १.३७)। कुत्ता लोभी होता है, इसीलिए कुत्ते की भूख के लिए अंग्रेजी में canine Appetite शब्द का प्रयोग होता है। “कुत्ते ने काट लिया”—इसका यहाँ अभिप्राय है—“सांसारिक लोभों ने काट लिया”। मन्त्र में “श्वा” शब्द का अभिप्राय है—लोभ। कुत्ते की दो प्रवृत्तियों का निर्देश मन्त्र में हुआ है। “वराहयु” शब्द द्वारा अपवित्रता का, और “श्वा” द्वारा लोभ का। आध्यात्मिक-अभ्यास का पहला प्रक्रम श्रवण से आरम्भ होता है, तदनन्तर मनन और निदिध्यासन का। जो व्यक्ति श्रवण नहीं करता, मानो कुत्ते ने उसका कान काट लिया है, अर्थात् सांसारिक लोभों में लिप्त तथा रत रहने के कारण तथा अपवित्र आचरण के कारण वह श्रवण-मनन आदि से रहित हुआ-हुआ है। कान का काम है श्रवण करना। कान काटा गया, तो श्रवण नहीं हो सकता। मन्त्र में कान द्वारा आध्यात्मिक कान का वर्णन है। जैसे कहा है—“उत त्वः शृण्वन् न शृणोत्येनाम्”। (ऋ০ १०.७१.४)। मन्त्रों में “श्वा” शब्द का लाक्षणिक प्रयोग भी हुआ है। यथा—“श्वा इव” अथर्व০ ४.३७.११; तथा “श्वयातुम्” (अथर्व০ ८.४.३२)। आधिदैविक दृष्टि में निरुक्त में “वृषाकपि” का अर्थ सूर्य कहा है (१२.३.२७)। ज्योतिषशास्त्र की दृष्टि से “श्वा” का अर्थ है Dogstar। Dogstar का पारिभाषिक नाम है Sirius। इसे canicula भी कहते हैं। द्युलोक में यह तारा सर्वाधिक प्रकाशमान है। यह canis major नक्षत्र-मण्डल में स्थित है, जिसे कि great-dog भी कहते हैं। Dogstar का उदय, जब सूर्योदय समकालीन होता है, तो मानो Dogstar ने सूर्य अर्थात् वृषाकपि का कान काट लिया है। Dogstar के उदय की दृष्टि से उतने काल को Dog-days कहते हैं, जितने काल तक यह सूर्योदय के साथ-साथ उदित होता रहता है। यह काल ३ जुलाई से ११ अगस्त तक का होता है। यह काल वर्षाकाल है। इस काल में बादलों के कारण सूर्य प्रायः छिपा रहता है। मानो “श्वा” ने इसका कान काटा है, और सूर्य पीड़ा के कारण दर्शन नहीं दे रहा है। संस्कृत में Sirius तारे को “लुब्धक” कहते हैं। लुब्धक का अर्थ है “लोभी” जो कुत्ते की लोभवृत्ति को दर्शाता है। इसी मांसलोभ के कारण “श्वा” ने “वृषाकपि” का कान काट लिया है।