अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 126/ मन्त्र 19
सूक्त - वृषाकपिरिन्द्राणी च
देवता - इन्द्रः
छन्दः - पङ्क्तिः
सूक्तम् - सूक्त-१२६
अ॒यमे॑मि वि॒चाक॑शद्विचि॒न्वन्दास॒मार्य॑म्। पिबा॑मि पाक॒सुत्व॑नो॒ऽभि धीर॑मचाकशं॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । ए॒मि॒ । वि॒ऽचाक॑शत् । वि॒ऽचि॒न्वन् । दास॑म् । आर्य॑म् ॥ पिबा॑मि । पा॒क॒सुत्व॑न: । अ॒भि । धीर॑म् । अ॒चा॒क॒श॒म् । विश्व॑स्मात् । इन्द्र॑: । उत्ऽत॑र ॥१२६.१९॥
स्वर रहित मन्त्र
अयमेमि विचाकशद्विचिन्वन्दासमार्यम्। पिबामि पाकसुत्वनोऽभि धीरमचाकशं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । एमि । विऽचाकशत् । विऽचिन्वन् । दासम् । आर्यम् ॥ पिबामि । पाकसुत्वन: । अभि । धीरम् । अचाकशम् । विश्वस्मात् । इन्द्र: । उत्ऽतर ॥१२६.१९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 126; मन्त्र » 19
भाषार्थ -
इन्द्र अर्थात् परमेश्वर कहता हे कि (अयम्) यह मैं (विचाकशत्) विवेकपूर्वक निरीक्षण करता हुआ (दासम् आर्यम्) दास और आर्य का (विचिन्वन्) विवेकपूर्वक भेद करता हुआ, (एमि) इस जगत् में आता हूँ। मैं (पाकसुत्वनः) परिपक्व-भक्तिरसवाले उपासक के परिपक्व भक्तिरस का (पिबामि) पान करता हूँ, उसे स्वीकार करता हूँ, उसे मानो तृषित हुआ ग्रहण करता हूँ। और (धीरम्) मेधावी उपासक को (अचाकशम्) पहिचानता हूँ। (विश्वस्मात्০) पूर्ववत्।
टिप्पणी -
[दासम् अर्थात्=वेदों में इन दो शब्दों का प्रयोग मनुष्यों की भिन्न-भिन्न दो जातियों के लिए प्रयुक्त नहीं हुआ, अपितु ये शब्द विचारों और कर्मों के भेद को ही सूचित करते हैं। यदि यह भेद जातिपरक हो तो “कृण्वन्तो विश्वमार्यम्” (ऋ০ ९.६३.५) यह वैदिक आदेश व्यर्थ हो जाएगा। क्योंकि एक जाति को दूसरी जाति में बदला नहीं जा सकता। गौ भैंस नहीं बन सकती, और न भैंस बन सकती है। समग्र मनुष्य एक ही मनुष्य जाति के हैं। विचारों और कर्मों की दृष्टि से राक्षस, असुर, देव और मनुष्य कहलाते हैं। दास हैं वे जोकि उपक्षयकारी हैं, समाज को हानि पहुँचाते हैं। और आर्य हैं वे जोकि समाज का कल्याण करते, और अपने आपको ईश्वर का पुत्र मानकर ईश्वरसदृश सर्वोपकार करते हैं। आर्यः=ईश्वरपुत्रः (निरु০ ६.५.२६)। दासः=दस्यतेरुप दासयति कर्माणि (निरु০ २.५.१७)। अतः दास और आर्य का भेद जन्ममूलक नहीं, अपितु गुणकर्ममूलक है।]