अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 15/ मन्त्र 10
सूक्त - अथर्वा
देवता - अग्निः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - वृष्टि सूक्त
अ॒पाम॒ग्निस्त॒नूभिः॑ संविदा॒नो य ओष॑धीनामधि॒पा ब॒भूव॑। स नो॑ व॒र्षं व॑नुतां जा॒तवे॑दाः प्रा॒णं प्र॒जाभ्यो॑ अ॒मृतं॑ दि॒वस्परि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒पाम् । अ॒ग्नि: । त॒नूभि॑: । स॒म्ऽवि॒दा॒न: । य: । ओष॑धीनाम् । अ॒धि॒ऽपा । ब॒भूव॑ । स: । न॒: । व॒र्षम् । व॒नु॒ता॒म् । जा॒तऽवे॑दा: । प्रा॒णम् । प्र॒ऽजाभ्य॑: । अ॒मृत॑म् । दि॒व: । परि॑॥१५.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
अपामग्निस्तनूभिः संविदानो य ओषधीनामधिपा बभूव। स नो वर्षं वनुतां जातवेदाः प्राणं प्रजाभ्यो अमृतं दिवस्परि ॥
स्वर रहित पद पाठअपाम् । अग्नि: । तनूभि: । सम्ऽविदान: । य: । ओषधीनाम् । अधिऽपा । बभूव । स: । न: । वर्षम् । वनुताम् । जातऽवेदा: । प्राणम् । प्रऽजाभ्य: । अमृतम् । दिव: । परि॥१५.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 15; मन्त्र » 10
भाषार्थ -
(यः) जो (अपाम्, अग्निः) जलों की अग्निः, अर्थात् मेघीया विद्युत् (तनूभिः) मेघ रूपी तनुओं के साथ (संविधान) ऐकमत्य को प्राप्त हुई, (ओषधीनाम्) ओषधियों की (अधिपाः) अधिष्ठातृरूप में रक्षक हुई है, (सः) वह (जातवेदाः) उत्पन्न पदार्थों में विद्यमान अग्नि (नः) हमें (वर्षम्) वर्षाजल, (प्रजाभ्यः) उत्पन्न ओषधियों या प्रजाजनों के लिए, (प्राणम्) प्राण तथा (दिवः परि) द्युलोक से (अमृतम्) मृत्यु से रक्षक जल (बनुताम्) प्रदान करें।
टिप्पणी -
[जल और अग्नि परस्पर में प्रतिद्वन्द्वी हैं, विरोधी हैं, परन्तु मेघस्थ अग्नि अर्थात् विद्युत मेघ के जलों के साथ ऐकमत्य को प्राप्त है, अतः वह मेघीय जल प्रदान कर, ओषधियों की 'अधिपा:' हुई है। विद्युत-अग्नि सब उत्पन्न पदार्थों में विद्यमान है, और उनके साथ भी ऐकमत्य को प्राप्त है। वह हमें वर्षाजल देती, उत्पन्न ओषधियों तथा प्रजाजनों के लिए प्राणभूत तथा द्युलोक से जल प्रदान करती है जोकि अमृतरूप है, अत्यन्त शुद्ध होने से शीघ्र मृत्यु का कारण नहीं बनता। द्युलोक से अमृत-जल देनेवाली अग्नि है सूर्य। अमृतम् उदकनाम (निघंटु १।१२) पार्थिव जल भारी होने से कम अमृत है।]