अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 15/ मन्त्र 6
अ॒भि क्र॑न्द स्त॒नया॒र्दयो॑द॒धिं भूमिं॑ पर्जन्य॒ पय॑सा॒ सम॑ङ्धि। त्वया॑ सृ॒ष्टं ब॑हु॒लमैतु॑ व॒र्षमा॑शारै॒षी कृ॒शगु॑रे॒त्वस्त॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि । क्र॒न्द॒ । स्त॒नय॑ । अ॒र्दय॑ । उ॒द॒ऽधिम् । भूमि॑म् । प॒र्ज॒न्य॒ । पय॑सा । सम् । अ॒ङ्धि॒ । त्वया॑ । सृ॒ष्टम् । ब॒हु॒लम् । आ । ए॒तु॒ । व॒र्षम् । आ॒शा॒र॒ऽए॒षी । कृ॒शऽगु॑: । ए॒तु॒ । अस्त॑म् ॥१५.६॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि क्रन्द स्तनयार्दयोदधिं भूमिं पर्जन्य पयसा समङ्धि। त्वया सृष्टं बहुलमैतु वर्षमाशारैषी कृशगुरेत्वस्तम् ॥
स्वर रहित पद पाठअभि । क्रन्द । स्तनय । अर्दय । उदऽधिम् । भूमिम् । पर्जन्य । पयसा । सम् । अङ्धि । त्वया । सृष्टम् । बहुलम् । आ । एतु । वर्षम् । आशारऽएषी । कृशऽगु: । एतु । अस्तम् ॥१५.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 15; मन्त्र » 6
भाषार्थ -
(पर्जन्य) हे मेघ ! (अभीक्रन्द) हमारी ओर आक्रन्दन कर, (स्तनय) गर्ज, (उदधिम्) समुद्र को (अर्दय) पीड़ित कर, (भूमिम्) भूमि को (पयसा) जल द्वारा (समङ्धि) संसिक्त कर। (त्वया) तुझ द्वारा (सृष्टम्) प्रेरित (बहुलम्) प्रभूत (वर्षम्) वर्षा जल (ऐतु आ एतु) हमें प्राप्त हो, (आशारैषी) आशाओं अर्थात दिशाओं [के भेदों] को पूर्णतया नष्ट करता हुआ, (कृशगुः) क्षीणरश्मि हुआ सूर्य (अस्तम् एतु) अस्त हो।
टिप्पणी -
[वर्षाऋतु में यद्यपि जल अर्थात् मेघ, समुद्र से उठते हैं, परन्तु वे बरसते हैं पृथिवी पर, नकि समुद्र पर, अतः वर्षाभाव से समुद्र मानो पीड़ित१ होता है। आशारैषी=सूर्य मानो बहुल वर्षा के कारण, पर्जन्यों द्वारा, दिशाओं को पूर्णतया आच्छादित कर, दिग्भेद को नष्ट कर देता है और स्वयं भी पर पर्जन्याच्छादित रहने के कारण क्षीणरश्मि हुआ, अस्त होता है। कृशगुः= कृश + गुः (गौओं, रश्मियोंवाला। गाव:= रश्मयः। गाव: रश्मिनाम (निघं० १।५)। रैषी=रिष हिसांयाम् (दिवादिः)। आशारैषी=आशा+आ+रिस+ घञ् + इनिः।] [१. अथवा वर्षा ऋतु में सूर्य की प्रखर रश्मियों द्वारा पीड़ित होकर समुद्र उछलता है।]