अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 15/ मन्त्र 11
सूक्त - अथर्वा
देवता - स्तनयित्नुः, प्रजापतिः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - वृष्टि सूक्त
प्र॒जाप॑तिः सलि॒लादाः स॑मु॒द्रादाप॑ ई॒रय॑न्नुद॒धिम॑र्दयाति। प्र प्या॑यतां॒ वृष्णो॒ अश्व॑स्य॒ रेतो॒ऽर्वाङे॒तेन॑ स्तनयि॒त्नुनेहि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठप्र॒जाऽप॑ति: । स॒लि॒लात् । आ । स॒मु॒द्रात् । आप॑: । ई॒रय॑न् । उ॒द॒ऽधिम् । अ॒र्द॒या॒ति॒ । प्र । प्या॒य॒ता॒म् । वृष्ण॑: । अश्व॑स्य । रेत॑: । अ॒वाङ् । ए॒तेन॑ । स्त॒न॒यि॒त्नुना॑ । आ । इ॒हि॒॥१५.११॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रजापतिः सलिलादाः समुद्रादाप ईरयन्नुदधिमर्दयाति। प्र प्यायतां वृष्णो अश्वस्य रेतोऽर्वाङेतेन स्तनयित्नुनेहि ॥
स्वर रहित पद पाठप्रजाऽपति: । सलिलात् । आ । समुद्रात् । आप: । ईरयन् । उदऽधिम् । अर्दयाति । प्र । प्यायताम् । वृष्ण: । अश्वस्य । रेत: । अवाङ् । एतेन । स्तनयित्नुना । आ । इहि॥१५.११॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 15; मन्त्र » 11
भाषार्थ -
(प्रजापतिः) प्रजाओं का रक्षक सूर्य, (सलिलात्, आ समुद्रात्) समग्र जलमय समुद्र से (अपः आ, ईरयन्) जल को प्रेरित करता हुआ, (उदधिम्) जलाधार समुद्र को (अर्दयाति) पीड़ित करे। (वृष्णः) वर्षा करनेवाले (अश्वस्य) आदित्य का (रेतः) जलरूपी वीर्य (प्र प्यायताम्) प्रवृद्ध हो, बढ़े, (स्तनयित्नुना) गर्जते मेघ के साथ (एतेन) तथा इस प्रवृद्ध रेतस् के साथ (अर्वाङ्) हमारी ओर हे सूर्य ! (एहि) तू आ।
टिप्पणी -
[सलिलात् समुद्रात=जलवाला समुद्र, प्रसिद्धः तथा "समुद्र अन्तरिक्षनाम" (निघंटु १।३)। मन्त्र में जलमय समुद्र अभिप्रेत है। आप:= आ+अपः। अर्दयाति=लेटि आट्। सलिल तो समुद्र की सम्पत्ति है। प्रजापति आदित्य वर्षा ऋतु में इसकी सम्पत्ति का हरण१ करता है। मानो इस कारण प्रजापति, समुद्र को पीड़ित करता है। वृष्णस्य अश्वस्य= "एको अश्वो वहति सप्तनामा आदित्यः। सप्तास्मै रश्मयो रसानभि सन्नामयन्ति" (निरुक्त ४।४।२७), अतः वृषा=अश्व है आदित्य, अर्थात् प्रजापति सूर्य। रेत:= उदक, जल, "रेतः उदकनाम" (निघंटु १।१२)। स्तनयित्नुः= स्तन, गदी देवशब्दे (चुरादिः)।] [१. वेदों में जड़ पदार्थों का भी वर्णन प्रायः ऐसा होता है मानो कि वे चेतन हैं। इसलिए वेदों के वर्णन चेतन की भावनाओं द्वारा मिश्रित होते हैं। इस भावना को सायणाचार्य ने "जलधिम् उदकादानेन पीडय" द्वारा अभिव्यक्त किया है (मन्त्र ६, ११)। अथवा वर्षर्तु में प्रजापति आदित्य निज प्रखर रश्मियों के प्रहारों द्वारा समुद्र-जल में उछल-कूद पैदा करता तथा उसे तरंगित करता रहता है। यह समुद्र का अदन है, पीड़ित होना है।]