अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 5/ मन्त्र 1
सूक्त - शुक्रः
देवता - कृत्यादूषणम् अथवा मन्त्रोक्ताः
छन्दः - उपरिष्टाद्बृहती
सूक्तम् - प्रतिसरमणि सूक्त
अ॒यं प्र॑तिस॒रो म॒णिर्वी॒रो वी॒राय॑ बध्यते। वी॒र्यवान्त्सपत्न॒हा शूर॑वीरः परि॒पाणः॑ सुम॒ङ्गलः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । प्र॒ति॒ऽस॒र: । म॒णि: । वी॒र: । वी॒राय॑ । ब॒ध्य॒ते॒ । वी॒र्य᳡वान् । स॒प॒त्न॒ऽहा । शूर॑ऽवीर: । प॒रि॒ऽपान॑: । सु॒ऽम॒ङ्गल॑: ॥५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं प्रतिसरो मणिर्वीरो वीराय बध्यते। वीर्यवान्त्सपत्नहा शूरवीरः परिपाणः सुमङ्गलः ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । प्रतिऽसर: । मणि: । वीर: । वीराय । बध्यते । वीर्यवान् । सपत्नऽहा । शूरऽवीर: । परिऽपान: । सुऽमङ्गल: ॥५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(अयम्) यह (प्रतिसरः) शत्रु के प्रतिसरण करने वाला, (वीरः) वीर, (वीर्यवान्) वीर्यवाला, (सपत्नहा) शत्रुनाशक, (शूरवीरः) शूरवीर, (परिपाणः) सब ओर से रक्षा करने वाला (सुमङ्गलः) उत्तम-मङ्गल करने वाला (मणिः) सेनाध्यक्षरूप पुरुषरत्न (वीराय) वीर राजा के लिये (बध्यते) बान्धा जाता है ।
टिप्पणी -
[मणि के विशेषण१ जो मन्त्र में कथित हैं, वे वीर आदि विशेषणों से युक्त सेनाध्यक्ष पुरुषरत्न के लिये सार्थक होते हैं। राष्ट्र का पति राजा भी वीर क्षत्रिय होना चाहिये (वीराय) "बध्यते" द्वारा वीर राजा और वीर सेनाध्यक्ष के पारस्परिक सम्बन्ध सुदढ़बद्ध होने चाहियें, यह मन्त्राभिप्राय है। मन्त्र में उक्ति न राजा की है, न सेनाध्यक्ष की। उक्ति या तो राष्ट्र के न्यायाध्यक्ष की है, या प्रधानमन्त्री की]।[१. यदि विशेषणों के अनुरूप विशेष्य व्यक्ति या वस्तु न हो, तो विशेषण गण्य ही होंगे।]