अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 5/ मन्त्र 21
सूक्त - शुक्रः
देवता - कृत्यादूषणम् अथवा मन्त्रोक्ताः
छन्दः - पराविराट्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - प्रतिसरमणि सूक्त
अ॒स्मिन्निन्द्रो॒ नि द॑धातु नृ॒म्णमि॒मं दे॑वासो अभि॒संवि॑शध्वम्। दी॑र्घायु॒त्वाय॑ श॒तशा॑रदा॒यायु॑ष्माञ्ज॒रद॑ष्टि॒र्यथास॑त् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्मिन् । इन्द्र॑: । नि । द॒धा॒तु॒ । नृ॒म्णम् । इ॒मम् । दे॒वा॒स॒: । अ॒भि॒ऽसंवि॑शध्वम् । दी॒र्घा॒यु॒ऽत्वाय॑ । श॒तऽशा॑रदाय । आयु॑ष्मान् । ज॒रत्ऽअ॑ष्टि: । यथा॑ । अस॑त् ॥५.२१॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्मिन्निन्द्रो नि दधातु नृम्णमिमं देवासो अभिसंविशध्वम्। दीर्घायुत्वाय शतशारदायायुष्माञ्जरदष्टिर्यथासत् ॥
स्वर रहित पद पाठअस्मिन् । इन्द्र: । नि । दधातु । नृम्णम् । इमम् । देवास: । अभिऽसंविशध्वम् । दीर्घायुऽत्वाय । शतऽशारदाय । आयुष्मान् । जरत्ऽअष्टि: । यथा । असत् ॥५.२१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 5; मन्त्र » 21
भाषार्थ -
(इन्द्रः) सम्राट् (अस्मिन्) इस पुरुषरत्न सेनाध्यक्ष में (नृम्णम्) बल और धन (निदधातु) निधिरूप में स्थापित करे, (देवासः) हे विजिगीषु प्रजाजनों ! (इमम्) इस [के सैन्य] में (अभि संविशध्वम्) तुम प्रवेश पाओ, भर्ती हो जाओ, (दीर्घायुत्वाय) ताकि तुम सब की दीर्घ आयु हो (शतशारदाय) सौ वर्षों की आयु हो, और यह पुरुषरत्न भी (आयुष्मान्) प्रशस्त और दीर्घ आयु वाला (जरदष्टिः) अर्थात् जरावस्था को (यथा) जिस प्रकार (असत्) प्राप्त हो जाय।
टिप्पणी -
[युद्धकाल में सम्राट् सेनाध्यक्ष को सब प्रकार की शक्ति प्रदान कर दे, और राजकोष के व्यय करने का अधिकार भी इसे दे दे। शक्तिप्रदान और राजकोष सोंप देने को वह सेनाध्यक्ष निधिरूप समझे जो कि सेनाध्यक्ष में निहित की गई है। प्रजाजनों को चाहिये कि सैन्य में स्वेच्छया भर्ती हों, ताकि प्रजाजन दीर्घायु हों, अर्थात् शत्रु द्वारा १०० वर्षों की आयु से पूर्व मार न दिये जांय, और सेनाध्यक्ष भी सुखी आयु और दीर्घायु प्राप्त कर सके। सैनिकों की यथोचित संख्या के अभाव में प्रजाजन भी मारे जाते हैं, और सेनाध्यक्ष भी मार दिया जाता है। नृम्णम् = बलम्, धनम् (निघं० २।९; २।१०)]