अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 5/ मन्त्र 12
सूक्त - शुक्रः
देवता - कृत्यादूषणम् अथवा मन्त्रोक्ताः
छन्दः - चतुष्पदा भुरिग्जगती
सूक्तम् - प्रतिसरमणि सूक्त
स इद्व्या॒घ्रो भ॑व॒त्यथो॑ सिं॒हो अथो॒ वृषा॑। अथो॑ सपत्न॒कर्श॑नो॒ यो बिभ॑र्ती॒मं म॒णिम् ॥
स्वर सहित पद पाठस: । इत् । व्या॒घ्र: । भ॒व॒ति॒ । अथो॒ इति॑ । सिं॒ह: । अथो॒ इति॑ । वृषा॑ । अथो॒ इति॑ । स॒प॒त्न॒ऽकर्श॑न: । य: । बिभ॑र्ति । इ॒मम् । म॒णिम् ॥५.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
स इद्व्याघ्रो भवत्यथो सिंहो अथो वृषा। अथो सपत्नकर्शनो यो बिभर्तीमं मणिम् ॥
स्वर रहित पद पाठस: । इत् । व्याघ्र: । भवति । अथो इति । सिंह: । अथो इति । वृषा । अथो इति । सपत्नऽकर्शन: । य: । बिभर्ति । इमम् । मणिम् ॥५.१२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 5; मन्त्र » 12
भाषार्थ -
(यः) जो राष्ट्रपति राजा (इमम्, मणिम्) इस सेनाध्यक्षरूपी पुरुषरत्न का (विभर्ति) धारण-पोषण करता है, (सः इत्) वह ही (व्याघ्रः) व्याघ्र के सदृश (भवति) होता है, (अथो) और (सिंह) सिंह के सदृश होता है, (अथो) और (वृषा) अनड्वान् के सदृश सुखवर्षी होता है। (अथो) और (सपत्नकर्शनः) शत्रुओं को कृश अर्थात् तनूकृत करने वाला होता है।
टिप्पणी -
[विभर्ति= भृञ् भरणे (म्वादिः); डुभृञ् धारणपोषणयोः (जुहोत्यादिः)। सेनाध्यक्ष का धारण करना तथा उसके सैन्यविभाग की शस्त्रास्त्र आदि द्वारा संपुष्टि करना। कर्शन (कुश तनूकरणे, दिवादिः) सिंह सदृश = "सिंहवच्च पराक्रमेत्" (मनु०), अर्थात् शत्रु को जीतने के लिये सिंह के समान पराक्रम करें१ यद्यपि युद्ध में पराक्रम सेनाध्यक्ष ही करता है, परन्तु सेनाध्यक्ष द्वारा किया गया पराक्रम राजा में ही आरोपित होता है। जैसे विजय और पराजय के साधन सेनाध्यक्ष और सैनिक होते हैं, तो भी विजय और पराजय राजा की ही कही जाती है]।[१. व्याघ्रः= बाघ, चीता। चीता के समान छिन कर शत्रुयों को पकड़े (सत्यार्थप्रकाश, समुल्लास ६)।]