अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 5/ मन्त्र 9
सूक्त - शुक्रः
देवता - कृत्यादूषणम् अथवा मन्त्रोक्ताः
छन्दः - चतुष्पदा पुरस्कृतिर्जगती
सूक्तम् - प्रतिसरमणि सूक्त
याः कृ॒त्या आ॑ङ्गिर॒सीर्याः कृ॒त्या आ॑सु॒रीर्याः कृ॒त्याः स्व॒यंकृ॑ता॒ या उ॑ चा॒न्येभि॒राभृ॑ताः। उ॒भयी॒स्ताः परा॑ यन्तु परा॒वतो॑ नव॒तिं ना॒व्या अति॑ ॥
स्वर सहित पद पाठया: । कृ॒त्या: । आ॒ङ्गि॒र॒सी: । या: । कृ॒त्या: । आ॒सु॒री: । या:। कृ॒त्या: । स्व॒यम्ऽकृता॑: । या: । ऊं॒ इति॑ । च॒ । अ॒न्येभि॑: । आऽभृ॑ता: । उ॒भयी॑: । ता: । परा॑ । य॒न्तु॒ । प॒रा॒ऽवत॑: । न॒व॒तिम् । ना॒व्या᳡: । अति॑ ॥५.९॥
स्वर रहित मन्त्र
याः कृत्या आङ्गिरसीर्याः कृत्या आसुरीर्याः कृत्याः स्वयंकृता या उ चान्येभिराभृताः। उभयीस्ताः परा यन्तु परावतो नवतिं नाव्या अति ॥
स्वर रहित पद पाठया: । कृत्या: । आङ्गिरसी: । या: । कृत्या: । आसुरी: । या:। कृत्या: । स्वयम्ऽकृता: । या: । ऊं इति । च । अन्येभि: । आऽभृता: । उभयी: । ता: । परा । यन्तु । पराऽवत: । नवतिम् । नाव्या: । अति ॥५.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 5; मन्त्र » 9
भाषार्थ -
(याः) जो (आङ्गिरसीः) अङ्गों के रसों सम्बन्धी (कृत्याः) पृतनाएं [मन्त्र ८] हैं, (याः) जो (आसुरीः) प्राणों सम्बन्धी (कृत्याः) पृतनाएं हैं, (याः) जो (स्वयंकृताः) निज संस्कारों द्वारा उत्पन्न की गई पृतनाएं हैं, (याः उ च) और जो (अन्येभिः) अन्यों की कुसंगति या पैतृकरूप में (आभृताः= आहृताः) प्राप्त हुई हैं, (ताः) वे (उभयीः) दोनों प्रकार की पृतनाएं (परावतः) दूर से दूर (परायन्तु) हमसे पृथक् होकर चली जांय, (नाव्याः) नौका द्वारा पार करने योग्य (नवतिम्) ९० नदियों का (अति) अतिक्रमण करके।
टिप्पणी -
[मन्त्र ८ में दो प्रकार की पृतनाओं, सेनाओं का वर्णन हुआ है, ऋषि द्वारा जेय, तथा सेनापति द्वारा जेय। मन्त्र ९ में भी द्विविध कृत्याओं का वर्णन किया गया है। एक तो शारीरिक अङ्गों के रस सम्बन्धी तथा प्राणों सम्बन्धी; और दूसरी आध्यात्मिक अर्थात् स्वयंकृत तथा पर कुसंगति द्वारा उपार्जित। आङ्गिरसीः= अङ्गानं रसः अर्थात् शरीर के जो अङ्ग हैं उनके रस। इन रसों में विकार पैदा करने वाली पृतनाएं हैं रोगोत्पादक रोगकीटाणु= Germs तथा आसुरी कृत्याएं हैं प्राणों में विकारोत्पादक दूषित वायु, जल तथा अन्न। असुः = प्राणः "असुरिति प्राणनाम अस्तः शरीरे भवति" (निरुक्त ३।२।८); असु हैं प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान आदि। अङ्गों के द्रवरस और वायुरूप प्राण परस्पर भिन्न स्वरूप वाले हैं। शरीर से सम्बन्ध रखने वाली, तथा आचार से सम्बन्ध रखने वाली कृत्याः अर्थात् पृतनाः, ये उभयीः हैं, दो प्रकार की हैं। शरीर सम्बन्धी पृतनाः साक्षात् शरीर पर प्रभाव करती हैं, और आचार सम्बन्धी पृतनाः साक्षात् मन पर प्रभाव करती हैं। नवति नाव्याः = मन्त्र में आध्यात्मिक "पृतनाः" का वर्णन हुआ है। ९० नदियां भी आध्यात्मिक हैं और नौका द्वारा पार की जा सकती हैं, अतः ये महावेगाः और महाविस्ताराः हैं। शरीर में १० इन्द्रियां हैं, पञ्च ज्ञानेद्रियां और पञ्च कर्मेन्द्रियां। ये नदियां हैं। ज्ञानेन्द्रियों द्वारा बाह्य पदार्थों से उत्पन्न ज्ञान-जल भीतर की ओर प्रवाहित होता है, और कर्मेन्द्रियों द्वारा कर्मरूपी जल भीतर से बाहर की ओर प्रवाहित होता है। इन दो प्रकार की नदियों का वेग और विस्तार भयावह है। (श्वेता० उप०) में १० इन्द्रियों को "स्रोतांसि" कहा है, अतः ये नदीरूप हैं। तथा इन "स्रोतांसि” को “भयावहानि" भी कहा है, अतः ये नाव्याः हैं, नौका द्वारा पार करने योग्या हैं। इन्हें पार करने के लिये नौका है ब्रह्मोडुप। उडुप है पार करने वाली नौका। ब्रह्मोपासनारूपी नौका द्वारा दशेन्द्रियों की ९० नदियों१ को पार किया जा सकता है। यथा— त्रिरुन्नतं स्थाप्य समं शरीरं हृदीन्द्रियाणि मनसा संनिरुध्य। ब्रह्मोडुपेन प्रतरेत विद्वान् स्रोतांसि सर्वाणि भयावहानि।। अध्याय २। खण्ड ८ ॥ नवति नाव्याः = इन्द्रियां सत्त्व, रजस्, तथा तमस् गुणों द्वारा निर्मित हुई हैं। प्रकृति के इन तीन गुणों के परस्पर मुख्य, गौण, तथा गौणतररूप में मिश्रित होने पर प्रत्येक इन्द्रिय के ९ स्वरूप होते हैं। इस प्रकार १० इन्द्रियों के ९× १०=९० स्वरूप हो जाते हैं, जो कि ९० नदियां हैं। नदियों के ये आध्यात्मिक स्वरूप हैं। इन्हें स्रोतांसि कहा है। प्रत्येक इन्द्रिय के नौ स्वरूप यथा - ३ स्वरूप= {१. सत्त्व मुख्य, रजस् गौण, तमस् गौणतर (१ स्वरूप) + २. सत्त्व मुख्य, रजस् गौणतर, तमस् गौण (१ स्वरूप), + ३. सत्त्व मुख्य, रजस् + तमस् गौण या गोणतर (१ स्वरूप)} ॥ ३ स्वरूप= {४. इसी प्रकार रजस् मुख्य, तथा अन्य दो सत्त्व + तमस् गौण या गौणतर} ॥ ३ स्वरूप= {५. इसी प्रकार तमस् मुख्य, तथा अन्य दो सत्त्व + तमस् गौण या गौणतर} ॥ कुल = ९ स्वरूप२] [१. विशेष– मन्त्र १८ तक राजनैतिक विजय का वर्णन हुआ है आध्यात्मिक विजय को मन्त्र ९ में दर्शाया है। ९० नदियों का आधिदैविक स्वरूप स्पष्ट नहीं, जिन पर कि राजनैतिक विजय का कथन मन्त्र में हो। आधिभौतिक या आधिदैविक अर्थ को आध्यात्मिक अर्थ में परिवर्तित करने के दृष्टान्तरूप में ९० नदियों का कथन किया गया है। मन्त्र में उपमावाचक पद लुप्त है। योगशास्त्र में आध्यात्मिक विजय दर्शाने के लिये "इन्द्रियविजय" को "इन्द्रियजयः" कहा है (विभूतिपाद, सूत्र ४७)। ९० रूपों वाली इन्द्रिय नदियां [स्रोतांसि] "इन्द्रियजयः" द्वारा अभिप्रत हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से योगदर्शन के भाष्य में व्यासमुनि ने चित्त को भी नदी कहा है। यथा “चित्तनदी नाम उभयतो वाहिनी, वहति कल्याणाय वहति पापाय च" (समाधिपाद सूत्र १२)। २. प्रत्येक इन्द्रिय की इन्द्रियवृत्तियों के ९ स्वरूप। १० इन्द्रियों के ९ X १०= ९० स्वरूप। ये स्रोतांसि तथा नदियां हैं।]