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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 9
    ऋषिः - शुक्रः देवता - कृत्यादूषणम् अथवा मन्त्रोक्ताः छन्दः - चतुष्पदा पुरस्कृतिर्जगती सूक्तम् - प्रतिसरमणि सूक्त
    61

    याः कृ॒त्या आ॑ङ्गिर॒सीर्याः कृ॒त्या आ॑सु॒रीर्याः कृ॒त्याः स्व॒यंकृ॑ता॒ या उ॑ चा॒न्येभि॒राभृ॑ताः। उ॒भयी॒स्ताः परा॑ यन्तु परा॒वतो॑ नव॒तिं ना॒व्या अति॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    या: । कृ॒त्या: । आ॒ङ्गि॒र॒सी: । या: । कृ॒त्या: । आ॒सु॒री: । या:। कृ॒त्या: । स्व॒यम्ऽकृता॑: । या: । ऊं॒ इति॑ । च॒ । अ॒न्येभि॑: । आऽभृ॑ता: । उ॒भयी॑: । ता: । परा॑ । य॒न्तु॒ । प॒रा॒ऽवत॑: । न॒व॒तिम् । ना॒व्या᳡: । अति॑ ॥५.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    याः कृत्या आङ्गिरसीर्याः कृत्या आसुरीर्याः कृत्याः स्वयंकृता या उ चान्येभिराभृताः। उभयीस्ताः परा यन्तु परावतो नवतिं नाव्या अति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    या: । कृत्या: । आङ्गिरसी: । या: । कृत्या: । आसुरी: । या:। कृत्या: । स्वयम्ऽकृता: । या: । ऊं इति । च । अन्येभि: । आऽभृता: । उभयी: । ता: । परा । यन्तु । पराऽवत: । नवतिम् । नाव्या: । अति ॥५.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 5; मन्त्र » 9
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    हिंसा के नाश का उपदेश।

    पदार्थ

    (याः) जो (कृत्याः) हिंसाएँ (आङ्गिरसीः) ऋषियों कर के कही गई हैं, (याः) जो (कृत्याः) हिंसाएँ (आसुरीः) असुरों करके की गई हैं, (याः) जो (कृत्याः) हिंसाएँ (स्वयंकृताः) अपने से की गई हैं, (च उ) और भी (याः) जो (अन्येभिः) दूसरे पुरुषों करके (आभृताः) पहुँचाई गई हैं, (उभयीः) सम्पूर्ण (ताः) वे (नवतिम्) नब्बे (नाव्याः) नाव से उतरने योग्य नदियों को (अति) पार करके (परावतः) बहुत दूर देशों को (परा यन्तु) चली जावें ॥९॥

    भावार्थ

    जिन हिंसाओं का विधान ऋषियों ने किया है और जिनको मनुष्य अपने आप बुद्धि विकार से करते हैं, अथवा जिन हिंसाओं को दूसरे उपद्रवी करते हैं, उन सब को मनुष्य ज्ञान द्वारा सर्वथा अति दूर हटावें ॥९॥

    टिप्पणी

    ९−(याः) (कृत्याः) हिंसाः। उपद्रवाः (अङ्गिरसीः) तेन प्रोक्तम्। पा० ४।३।१०१। अङ्गिरस्-अण्, ङीप्। आङ्गिरस्यः। अङ्गिरोभिर्ज्ञानवद्भिः प्रोक्ताः (याः) (कृत्याः) (आसुरीः) तेन निर्वृत्तम्। पा० ४।२।६८। असुर-अण्। आसुर्यः। असुरैरुपद्रविभिर्निर्मिताः (याः) (कृत्याः) (स्वयंकृताः) आत्मना कृताः स्वबुद्धिविकारेण (उ) अपि (च) (अन्येभिः) अन्यैः (आभृताः) आहृताः। प्रापिताः (उभयीः) अ० ७।१०९।२। उभ पूर्तौ-कयन्, ङीप्। उभय्यः। सम्पूर्णाः (ताः) कृत्याः (परा) दूरे (यन्तु) गच्छन्तु (परावतः) दूरदेशान् (नवतिम्) बह्वीरित्यर्थः (नाव्याः) नौवयोधर्मविष०। पा० ४।४।९१। नौ-यत्। नावा तार्याः नदीः (अति) अतीत्य ॥

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    विषय

    'आङ्गिरसी: आसुरी:' कृत्याः

    पदार्थ

    १. (याः कृत्याः) = जो छेदन-भेदन-हिंसा-प्रयोग (आङ्गिरसी:) = अङ्ग-रसों से सम्बद्ध हैं, अर्थात् जिनका घातक प्रभाव "रस-रुधिर' आदि शरीर की धातुओं पर पड़ता है, (याः कृत्या: आसुरी:) = जो हिंसन-क्रियाएँ [असुषु रमन्ते] प्राणों में क्रीड़ा करनेवाली हैं, अर्थात् जिस छेदन भेदन का घातक प्रभाव प्राणशक्ति पर पड़ता है, (याः कृत्या: स्वयंकृता:) = जो छेदन-भेदन की क्रियाएँ स्वयं आत्मदोष से उत्पन्न कर ली जाती हैं, (च उ) = और निश्चय से (याः अन्येभिः आभूता:) = जो छेदन-भेदन की क्रियाएँ हमारे साथ सम्बद्ध अन्य पुरुषों से प्राप्त कराई जाती हैं, (ता:) = वे (उभयी:) = दोनों प्रकार की [स्वयंकृत या अन्याभृत] कृत्याएँ (नाव्याः नवतिम् अति) = नौकाओं से तैरने योग्य नव्वे महानदियों को लाँघकर (परावतः परायन्तु) = दूर देश से भी दूर चली जाएँ हमारे समीप उनका पहुँचना सम्भव ही न रहे। २. जैसे 'सात समुद्र पार' एक काव्यमय शब्द प्रयोग है, उसी प्रकार यहाँ नव्वे महानदियों के पार यह प्रयोग है। ये छेदन-भेदन हमसे दूर ही रहें। हमारे समीप न आ पाएँ। हमारे रस-रुधिर आदि अङ्ग-रसों पर इनका कुप्रभाव न हो, न ही हमारी प्राणशक्ति इन घातक प्रयोगों से प्रभावित हो। हमारे स्वयंकृत खान-पान के दोष इन हिंसाओं का कारण न बनें व अन्यों के साथ सम्पर्क इन हिंसनों को प्राप्त कराने का कारण न बने।

    भावार्थ

    न तो हमारे रस-रुधिर आदि अङ्ग-रस और न ही हमारे प्राण छेदन-भेदन को प्राप्त हों। न हमारे निजू दोषों से और न ही सम्बन्धित पुरुषों के दोषों से हमें छेदन-भेदन प्राप्त हो।

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    भाषार्थ

    (याः) जो (आङ्गिरसीः) अङ्गों के रसों सम्बन्धी (कृत्याः) पृतनाएं [मन्त्र ८] हैं, (याः) जो (आसुरीः) प्राणों सम्बन्धी (कृत्याः) पृतनाएं हैं, (याः) जो (स्वयंकृताः) निज संस्कारों द्वारा उत्पन्न की गई पृतनाएं हैं, (याः उ च) और जो (अन्येभिः) अन्यों की कुसंगति या पैतृकरूप में (आभृताः= आहृताः) प्राप्त हुई हैं, (ताः) वे (उभयीः) दोनों प्रकार की पृतनाएं (परावतः) दूर से दूर (परायन्तु) हमसे पृथक् होकर चली जांय, (नाव्याः) नौका द्वारा पार करने योग्य (नवतिम्) ९० नदियों का (अति) अतिक्रमण करके।

    टिप्पणी

    [मन्त्र ८ में दो प्रकार की पृतनाओं, सेनाओं का वर्णन हुआ है, ऋषि द्वारा जेय, तथा सेनापति द्वारा जेय। मन्त्र ९ में भी द्विविध कृत्याओं का वर्णन किया गया है। एक तो शारीरिक अङ्गों के रस सम्बन्धी तथा प्राणों सम्बन्धी; और दूसरी आध्यात्मिक अर्थात् स्वयंकृत तथा पर कुसंगति द्वारा उपार्जित। आङ्गिरसीः= अङ्गानं रसः अर्थात् शरीर के जो अङ्ग हैं उनके रस। इन रसों में विकार पैदा करने वाली पृतनाएं हैं रोगोत्पादक रोगकीटाणु= Germs तथा आसुरी कृत्याएं हैं प्राणों में विकारोत्पादक दूषित वायु, जल तथा अन्न। असुः = प्राणः "असुरिति प्राणनाम अस्तः शरीरे भवति" (निरुक्त ३।२।८); असु हैं प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान आदि। अङ्गों के द्रवरस और वायुरूप प्राण परस्पर भिन्न स्वरूप वाले हैं। शरीर से सम्बन्ध रखने वाली, तथा आचार से सम्बन्ध रखने वाली कृत्याः अर्थात् पृतनाः, ये उभयीः हैं, दो प्रकार की हैं। शरीर सम्बन्धी पृतनाः साक्षात् शरीर पर प्रभाव करती हैं, और आचार सम्बन्धी पृतनाः साक्षात् मन पर प्रभाव करती हैं। नवति नाव्याः = मन्त्र में आध्यात्मिक "पृतनाः" का वर्णन हुआ है। ९० नदियां भी आध्यात्मिक हैं और नौका द्वारा पार की जा सकती हैं, अतः ये महावेगाः और महाविस्ताराः हैं। शरीर में १० इन्द्रियां हैं, पञ्च ज्ञानेद्रियां और पञ्च कर्मेन्द्रियां। ये नदियां हैं। ज्ञानेन्द्रियों द्वारा बाह्य पदार्थों से उत्पन्न ज्ञान-जल भीतर की ओर प्रवाहित होता है, और कर्मेन्द्रियों द्वारा कर्मरूपी जल भीतर से बाहर की ओर प्रवाहित होता है। इन दो प्रकार की नदियों का वेग और विस्तार भयावह है। (श्वेता० उप०) में १० इन्द्रियों को "स्रोतांसि" कहा है, अतः ये नदीरूप हैं। तथा इन "स्रोतांसि” को “भयावहानि" भी कहा है, अतः ये नाव्याः हैं, नौका द्वारा पार करने योग्या हैं। इन्हें पार करने के लिये नौका है ब्रह्मोडुप। उडुप है पार करने वाली नौका। ब्रह्मोपासनारूपी नौका द्वारा दशेन्द्रियों की ९० नदियों१ को पार किया जा सकता है। यथा— त्रिरुन्नतं स्थाप्य समं शरीरं हृदीन्द्रियाणि मनसा संनिरुध्य। ब्रह्मोडुपेन प्रतरेत विद्वान् स्रोतांसि सर्वाणि भयावहानि।। अध्याय २। खण्ड ८ ॥ नवति नाव्याः = इन्द्रियां सत्त्व, रजस्, तथा तमस् गुणों द्वारा निर्मित हुई हैं। प्रकृति के इन तीन गुणों के परस्पर मुख्य, गौण, तथा गौणतररूप में मिश्रित होने पर प्रत्येक इन्द्रिय के ९ स्वरूप होते हैं। इस प्रकार १० इन्द्रियों के ९× १०=९० स्वरूप हो जाते हैं, जो कि ९० नदियां हैं। नदियों के ये आध्यात्मिक स्वरूप हैं। इन्हें स्रोतांसि कहा है। प्रत्येक इन्द्रिय के नौ स्वरूप यथा - ३ स्वरूप= {१. सत्त्व मुख्य, रजस् गौण, तमस् गौणतर (१ स्वरूप) + २. सत्त्व मुख्य, रजस् गौणतर, तमस् गौण (१ स्वरूप), + ३. सत्त्व मुख्य, रजस् + तमस् गौण या गोणतर (१ स्वरूप)} ॥ ३ स्वरूप= {४. इसी प्रकार रजस् मुख्य, तथा अन्य दो सत्त्व + तमस् गौण या गौणतर} ॥ ३ स्वरूप= {५. इसी प्रकार तमस् मुख्य, तथा अन्य दो सत्त्व + तमस् गौण या गौणतर} ॥ कुल = ९ स्वरूप२] [१. विशेष– मन्त्र १८ तक राजनैतिक विजय का वर्णन हुआ है आध्यात्मिक विजय को मन्त्र ९ में दर्शाया है। ९० नदियों का आधिदैविक स्वरूप स्पष्ट नहीं, जिन पर कि राजनैतिक विजय का कथन मन्त्र में हो। आधिभौतिक या आधिदैविक अर्थ को आध्यात्मिक अर्थ में परिवर्तित करने के दृष्टान्तरूप में ९० नदियों का कथन किया गया है। मन्त्र में उपमावाचक पद लुप्त है। योगशास्त्र में आध्यात्मिक विजय दर्शाने के लिये "इन्द्रियविजय" को "इन्द्रियजयः" कहा है (विभूतिपाद, सूत्र ४७)। ९० रूपों वाली इन्द्रिय नदियां [स्रोतांसि] "इन्द्रियजयः" द्वारा अभिप्रत हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से योगदर्शन के भाष्य में व्यासमुनि ने चित्त को भी नदी कहा है। यथा “चित्तनदी नाम उभयतो वाहिनी, वहति कल्याणाय वहति पापाय च" (समाधिपाद सूत्र १२)। २. प्रत्येक इन्द्रिय की इन्द्रियवृत्तियों के ९ स्वरूप। १० इन्द्रियों के ९ X १०= ९० स्वरूप। ये स्रोतांसि तथा नदियां हैं।]

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    विषय

    शत्रुनाशक सेनापति की नियुक्ति।

    भावार्थ

    (याः) जो (कृत्याः) जन संहारकारी क्रियाएं (आङ्गिरसीः) आङ्गिरस वेद, अथर्ववेद के विद्वान् वैज्ञानिकों द्वारा बतलाई जाती हैं, और (याः कृत्याः आसुरीः) जो बलवान्, शक्तिशाली पुरुषों द्वारा संहारकारी क्रियाएं की जाती हैं, (याः कृत्याः) जो हिंसाकारी कार्य (स्वयंकृताः) प्रजा अपने आप कर लेती है, और (या उ) जो (अन्येभिः) अन्य, शत्रु लोगों द्वारा (आमृताः) लाई जाती है, (ताः) वे (उभयीः) दोनों प्रकार की दैवी और मानुषी विपत्तियां (परावतः) दूर (नवतिं नाव्याः अति) ९० नदियों को पार करके (परा यन्तु) दूर चली जावें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुक्र ऋषिः। कृत्यादूषणमुत मन्त्रोक्ता देवताः। १, ६, उपरिष्टाद् बृहती। २ त्रिपाद विराड् गायत्री। ३ चतुष्पाद् भुरिग् जगती। ७, ८ ककुम्मत्यौ। ५ संस्तारपंक्तिर्भुरिक्। ९ पुरस्कृतिर्जगती। १० त्रिष्टुप्। २१ विराटत्रिष्टुप्। ११ पथ्या पंक्तिः। १२, १३, १६-१८ अनुष्टुप्। १४ त्र्यवसाना षट्पदा जगती। १५ पुरस्ताद बृहती। १३ जगतीगर्भा त्रिष्टुप्। २० विराड् गर्भा आस्तारपंक्तिः। २२ त्र्यवसाना सप्तपदा विराड् गर्भा भुरिक् शक्वरी। द्वाविंशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Pratisara Mani

    Meaning

    Whatever violences there be whether in relation to parts of the body, both individual and social, or in relation to pranic energy, both individual and social, whether caused by one’s own self or by contact with others, may both these, navigable all, go far beyond the ninety streams of life, that is, beyond the three high, medium and low grades of intensity of the ten senses of perception and volition.

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    Translation

    The evil-plottings (krtrah) first applied by the angry sages; the evil-plottings, applied by the life-enjoyers; the evil-plottings applied by some one himself and the evilplottings applied through some other persons, may those, of both types, go farther than the far away, past the ninety navigable (rivers). (navatim navyah).

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    Translation

    Let all those devices of both kinds which are prepared by electricity or fire, which are prepared with cloudy vapors may be they prepared by self or maybe they prepared by others, depart to remotest space past ninety rivers.

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    Translation

    All violent deeds, mentioned by the learned scholars of the Atharva Veda, or committed by powerful persons, or self-created, or perpetrated by other foemen; may these depart completely to a distant place crossing ninety streams.

    Footnote

    Crossing ninety streams: Going far away.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ९−(याः) (कृत्याः) हिंसाः। उपद्रवाः (अङ्गिरसीः) तेन प्रोक्तम्। पा० ४।३।१०१। अङ्गिरस्-अण्, ङीप्। आङ्गिरस्यः। अङ्गिरोभिर्ज्ञानवद्भिः प्रोक्ताः (याः) (कृत्याः) (आसुरीः) तेन निर्वृत्तम्। पा० ४।२।६८। असुर-अण्। आसुर्यः। असुरैरुपद्रविभिर्निर्मिताः (याः) (कृत्याः) (स्वयंकृताः) आत्मना कृताः स्वबुद्धिविकारेण (उ) अपि (च) (अन्येभिः) अन्यैः (आभृताः) आहृताः। प्रापिताः (उभयीः) अ० ७।१०९।२। उभ पूर्तौ-कयन्, ङीप्। उभय्यः। सम्पूर्णाः (ताः) कृत्याः (परा) दूरे (यन्तु) गच्छन्तु (परावतः) दूरदेशान् (नवतिम्) बह्वीरित्यर्थः (नाव्याः) नौवयोधर्मविष०। पा० ४।४।९१। नौ-यत्। नावा तार्याः नदीः (अति) अतीत्य ॥

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