अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 3
ऋषिः - शुक्रः
देवता - कृत्यादूषणम् अथवा मन्त्रोक्ताः
छन्दः - चतुष्पदा भुरिग्जगती
सूक्तम् - प्रतिसरमणि सूक्त
57
अ॒नेनेन्द्रो॑ म॒णिना॑ वृ॒त्रम॑हन्न॒नेनासु॑रा॒न्परा॑भावयन्मनी॒षी। अ॒नेना॑जय॒द्द्यावा॑पृथि॒वी उ॒भे इ॒मे अ॒नेना॑जयत्प्र॒दिश॒श्चत॑स्रः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒नेन॑ । इन्द्र॑: । म॒णिना॑ । वृ॒त्रम् । अ॒ह॒न् । अ॒नेन॑ । असु॑रान् । परा॑ । अ॒भा॒व॒य॒त् । म॒नी॒षी । अ॒नेन॑ । अ॒ज॒य॒त् । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । उ॒भे इति॑ । इ॒मे इति॑ । अ॒नेन॑ । अ॒ज॒य॒त् । प्र॒ऽदिश॑: । चत॑स्र: ॥५.३॥
स्वर रहित मन्त्र
अनेनेन्द्रो मणिना वृत्रमहन्ननेनासुरान्पराभावयन्मनीषी। अनेनाजयद्द्यावापृथिवी उभे इमे अनेनाजयत्प्रदिशश्चतस्रः ॥
स्वर रहित पद पाठअनेन । इन्द्र: । मणिना । वृत्रम् । अहन् । अनेन । असुरान् । परा । अभावयत् । मनीषी । अनेन । अजयत् । द्यावापृथिवी इति । उभे इति । इमे इति । अनेन । अजयत् । प्रऽदिश: । चतस्र: ॥५.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
हिंसा के नाश का उपदेश।
पदार्थ
(मनीषी) महा बुद्धिमान् (इन्द्रः) बड़े प्रतापी पुरुष ने (अनेन) इस [प्रसिद्ध वेदरूप] (मणिना) मणि [उत्तम नियम] के द्वारा (वृत्रम्) अन्धकार (अहन्) मिटाया और (अनेन) इसी के द्वारा (असुरान्) असुरों को (परा अभावयत्) हराया (अनेन) इसी के द्वारा (उभे) दोनों (इमे) इन (द्यावापृथिवी) सूर्य और पृथिवी लोक को (अजयत्) जीता और (अनेन) इसी के द्वारा (चतस्रः) चारों (प्रदिशः) दिशाओं को (अजयत्) जीता ॥३॥
भावार्थ
वेदानुगामी बुद्धिमान् पराक्रमी पुरुष सब वैरियों को मिटाकर सूर्य और पृथिवी आदि लोकों पर प्रभाव जमाकर चक्रवर्ती राजा हुए हैं, वैसा ही सब मनुष्यों को होना चाहिये ॥३॥
टिप्पणी
३−(अनेन) प्रसिद्धेन वेदरूपेण (इन्द्रः) प्रतापी सेनापतिः (वृत्रम्) अ० २।५।३। अन्धकारम् (अहन्) हतवान् (अनेन) (असुरान्) सुरविरोधिनो दैत्यान् (पराभावयत्) पराभूतान् विनष्टानकरोत् (मनीषी) अ० ३।५।६। मनीषया मनस ईषया स्तुत्या प्रज्ञया वा-निरु० ९।१०। मेधावी (अनेन) (अजयत्) जितवान् (द्यावापृथिवी) सूर्यभूलोकौ (उभे) द्वे (इमे) प्रत्यक्षे (अनेन) (अजयत्) (प्रदिशः) प्रकृष्टा दिशः प्राच्याद्याः (चतस्रः) चतुःसंख्याकाः ॥
विषय
वृत्र-विनाश व असुर पराभव
पदार्थ
१. (इन्द्रः) = जितेन्द्रिय पुरुष (अनेन मणिना) = इस वीर्यरूप मणि के द्वारा (वृत्रम् अहन्) = ज्ञान पर आ जानेवाले 'काम' रूप आवरण को नष्ट करता है। सुरक्षित वीर्य ज्ञानाग्नि का इंधन बनता है और दीस ज्ञानाग्नि से काम का दहन होता है। (मनीषी) = वीर्यरक्षण द्वारा सूक्ष्म बुद्धि को प्राप्त मनुष्य (अनेन) = इस वीर्यरूप मणि के द्वारा ही (असुरान्) = सब आसुरवृत्तियों को (परा अभावयत्) = सुदूर पराभूत करनेवाला होता है। २. (अनेन) = इसके द्वारा ही (इमे उभे द्यावापृथिवी) = इन दोनों द्यावापृथिवी को मस्तिष्करूप द्युलोक व शरीररूप पृथिवी को (अजयत्) = जीतता है, मस्तिष्क को ज्ञानदीप्त बनाता है तो शरीर को सशक्त करता है। (अनेन) = इस वीर्यरूप मणि के द्वारा (चतस्त्रः प्रदिश:) = चारों दिशाओं और उपदिशाओं को अजयत्-जीतनेवाला होता है। सब दिशाओं में इस वीर्यवान् पुरुष की शोभा होती है।
भावार्थ
जितेन्द्रिय पुरुष वीर्यरक्षण द्वारा ज्ञानाग्नि को दीप्त करके उससे काम का विध्वंस करता है, सब आसुरीभावों को पराभूत करता है, मस्तिष्क को ज्ञानदीस व शरीर को सशक्त बनाता है और सब दिशाओं में शोभावाला होता है।
भाषार्थ
(अनेन मणिना) इस सेनाध्यक्षरूपी पुरुषरत्न द्वारा (इन्द्रः) सम्राट् ने (वृत्रम्) साम्राज्य पर घेरा डालने वाले शत्रुदल का (अहन्) हनन किया, (अनेन) इस द्वारा (मनीषी) मनस्वी इन्द्र ने (असुरान्) प्राणशाली शत्रु-सैनिकों को (पराभावयन्) पराभूत किया। (अनेन) इस द्वारा (इमे उभे) इन दोनों (द्यावापृथिवी) द्युलोक-पृथिवीलोक को (अजयत्) उसने जीता, (अनेन) इस द्वारा (चतस्रः प्रदिशः) चार व्याप्त दिशाओं को (अजयत्) उसने जीता।
टिप्पणी
[क्या मन्त्रोक्त वर्णन काष्ठनिर्मित मणि द्वारा सम्भव है? "राष्ट्रपति" को प्रोत्साहित करने के लिये कहा है कि "इस सेनाध्यक्ष के द्वारा इन्द्र ने भी विजय पाई, इसलिए यह सेनाध्यक्ष" हे राष्ट्रपति ! [राजन्] तुझे विजयी करेगा। मन्त्र में "मनीषी" पद द्वारा इन्द्र को मनुष्य सूचित किया है। इन्द्र है सम्राट्, संयुक्तराष्ट्रों अर्थात् साम्राज्य का अधिपति और (मन्त्र १, २) में वर्णित राजा है एक राष्ट्र का अधिपति। यथा “इन्द्रश्च सम्राट् वरुणश्च राजा" (यजु० ८।३७)। राष्ट्र के राजा को वरुण कहा है। ये सब राष्ट्रपति मिल कर संयुक्त राष्ट्रों के अधिपति सम्राट् का वरण करते हैं, निर्वाचन करते हैं। द्युलोक के विजय का अभिप्राय यह है कि विमानों द्वारा द्युलोक तक जा सकना]।
विषय
शत्रुनाशक सेनापति की नियुक्ति।
भावार्थ
मणि से शुशोभित पुरुष का इस प्रकार परिचय दिया जाता है—(अनेन) इस (मणिना) पदक से विभूषित या शिरोमणि सेनापति के बल से (इन्द्रः) राजा (वृत्रम् अहन्) राष्ट्र के घेरने वाले शत्रु का नाश करता है। (मनीषी) अपने मन्त्र या मनोबल से समस्त राष्ट्र को प्रेरित या संचालित करने वाला राजा (असुरान्) असुर, बलवान्, बल के गर्वी उपद्रवी लोगों को (परा अभावयत्) पराजित करता है। (अनेन) इस के बल से (इमे) इन (द्यावापृथिवी उभे) द्यौ और पृथिवी, भूमि-पतियों और भूमियों दोनों को (अजयत्) विजय करता है और (अनेन) इसके बल से (चतस्रः प्रदिशः) चारों दिशाओं का (अजयत्) विजय करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शुक्र ऋषिः। कृत्यादूषणमुत मन्त्रोक्ता देवताः। १, ६, उपरिष्टाद् बृहती। २ त्रिपाद विराड् गायत्री। ३ चतुष्पाद् भुरिग् जगती। ७, ८ ककुम्मत्यौ। ५ संस्तारपंक्तिर्भुरिक्। ९ पुरस्कृतिर्जगती। १० त्रिष्टुप्। २१ विराटत्रिष्टुप्। ११ पथ्या पंक्तिः। १२, १३, १६-१८ अनुष्टुप्। १४ त्र्यवसाना षट्पदा जगती। १५ पुरस्ताद बृहती। १३ जगतीगर्भा त्रिष्टुप्। २० विराड् गर्भा आस्तारपंक्तिः। २२ त्र्यवसाना सप्तपदा विराड् गर्भा भुरिक् शक्वरी। द्वाविंशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Pratisara Mani
Meaning
By virtue of this exceptional honour and valour of divine order, Indra, ruler of the world, all-wise visionary, destroys the evil and dark forces of the world, subdues the negative forces of life. By this he rules over both heaven and earth, and by this he controls all the four directions of space.
Translation
With this blessing, the resplendent self killed the nescience; with this he, the wise, defeated and destroyed the life-enjoyers (life-spoilers, murderers); with this, he conquered both these heaven and earth; with this, he conquered all the four regions.
Translation
The King decorated with this Mani destroys the assailant; the enlightened statesman decorated with this inflicts defeats to anti-social and anti-national elements; decorated with this the King becomes victorious over earth and heaven both ; he maintaining through this his supremacy in the four regions.
Translation
A wise king, following Vedic teachings has removed ignorance, slaughtered the foes. With this Vedic Law, he has conquered the Heaven and Earth, and mastered all the four directions.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(अनेन) प्रसिद्धेन वेदरूपेण (इन्द्रः) प्रतापी सेनापतिः (वृत्रम्) अ० २।५।३। अन्धकारम् (अहन्) हतवान् (अनेन) (असुरान्) सुरविरोधिनो दैत्यान् (पराभावयत्) पराभूतान् विनष्टानकरोत् (मनीषी) अ० ३।५।६। मनीषया मनस ईषया स्तुत्या प्रज्ञया वा-निरु० ९।१०। मेधावी (अनेन) (अजयत्) जितवान् (द्यावापृथिवी) सूर्यभूलोकौ (उभे) द्वे (इमे) प्रत्यक्षे (अनेन) (अजयत्) (प्रदिशः) प्रकृष्टा दिशः प्राच्याद्याः (चतस्रः) चतुःसंख्याकाः ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal