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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 12
    ऋषिः - शुक्रः देवता - कृत्यादूषणम् अथवा मन्त्रोक्ताः छन्दः - चतुष्पदा भुरिग्जगती सूक्तम् - प्रतिसरमणि सूक्त
    51

    स इद्व्या॒घ्रो भ॑व॒त्यथो॑ सिं॒हो अथो॒ वृषा॑। अथो॑ सपत्न॒कर्श॑नो॒ यो बिभ॑र्ती॒मं म॒णिम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स: । इत् । व्या॒घ्र: । भ॒व॒ति॒ । अथो॒ इति॑ । सिं॒ह: । अथो॒ इति॑ । वृषा॑ । अथो॒ इति॑ । स॒प॒त्न॒ऽकर्श॑न: । य: । बिभ॑र्ति । इ॒मम् । म॒णिम् ॥५.१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स इद्व्याघ्रो भवत्यथो सिंहो अथो वृषा। अथो सपत्नकर्शनो यो बिभर्तीमं मणिम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स: । इत् । व्याघ्र: । भवति । अथो इति । सिंह: । अथो इति । वृषा । अथो इति । सपत्नऽकर्शन: । य: । बिभर्ति । इमम् । मणिम् ॥५.१२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 5; मन्त्र » 12
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    हिंसा के नाश का उपदेश।

    पदार्थ

    (सः) वह पुरुष (इत्) ही (व्याघ्रः) बाघ, (अथो) और भी (सिंहः) सिंह, (अथो) और भी (वृषा) बलीवर्द [समान बलवान्] (अथो) और भी (सपत्नकर्शनः) अत्रुओं को दुर्बल करनेवाला (भवति) होता है, (यः) जो (इमम्) इस [वेदरूप] (मणिम्) मणि [श्रेष्ठ नियम] को (बिभर्ति) रखता है ॥१२॥

    भावार्थ

    वेदानुगामी पुरुष सब प्रकार शक्तिमान् होकर शत्रुओं का नाश करते हैं ॥१२॥

    टिप्पणी

    १२−(सः) पुरुषः (इत्) एव (व्याघ्रः) व्याघ्र इव शक्तिमान् (भवति) (अथो) अपि च (सिंहः) सिंह इव (वृषा) बलीवर्द इव (अथो) (सपत्नकर्शनः) कृश तनूकरणे-ल्युट्। शत्रूणां दुर्बलकरः (यः) (बिभर्ति) धरति (इमम्) प्रसिद्धं वेदरूपम् (मणिम्) म० १। श्रेष्ठनियमम् ॥

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    विषय

    व्याघ्रः सिंहः इव

    पदार्थ

    १. (यः) = जो भी (इमं मणिं बिभर्ति) = इस वीर्यरूप मणि को धारण करता है, (सः इत) = बह ही (व्याघ्रः भवति) = व्यान्न होता है, (अथो सिंहः) = और शेर के समान ही होता है। व्याघ्र व सिंह के समान यह सब शत्रुओं को शीर्ण करने में समर्थ होता है। (अथो वृषा) = अब यह सब अङ्ग प्रत्यङ्गों में शक्ति का सेचन करनेवाला होता है। २. इसप्रकार सब अङ्गों को बलवान् बनाकर (अथो) = अब यह (सपत्नकर्शन:) = सब शत्रुओं का विनाशक होता है। न तो रोग और न ही वासनाएँ इसे अभिभूत कर पाती हैं।

     

    भावार्थ

    सुरक्षित वीर्यमणि हमें सिंह व व्याघ्र के समान शत्रुओं के अभिभव में समर्थ करती है और सब अङ्ग-प्रत्यङ्गों में शक्ति का सेचन करती हुई हमारे सब रोगरूप शत्रुओं को नष्ट करती है।

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    भाषार्थ

    (यः) जो राष्ट्रपति राजा (इमम्, मणिम्) इस सेनाध्यक्षरूपी पुरुषरत्न का (विभर्ति) धारण-पोषण करता है, (सः इत्) वह ही (व्याघ्रः) व्याघ्र के सदृश (भवति) होता है, (अथो) और (सिंह) सिंह के सदृश होता है, (अथो) और (वृषा) अनड्वान् के सदृश सुखवर्षी होता है। (अथो) और (सपत्नकर्शनः) शत्रुओं को कृश अर्थात् तनूकृत करने वाला होता है।

    टिप्पणी

    [विभर्ति= भृञ् भरणे (म्वादिः); डुभृञ् धारणपोषणयोः (जुहोत्यादिः)। सेनाध्यक्ष का धारण करना तथा उसके सैन्यविभाग की शस्त्रास्त्र आदि द्वारा संपुष्टि करना। कर्शन (कुश तनूकरणे, दिवादिः) सिंह सदृश = "सिंहवच्च पराक्रमेत्" (मनु०), अर्थात् शत्रु को जीतने के लिये सिंह के समान पराक्रम करें१ यद्यपि युद्ध में पराक्रम सेनाध्यक्ष ही करता है, परन्तु सेनाध्यक्ष द्वारा किया गया पराक्रम राजा में ही आरोपित होता है। जैसे विजय और पराजय के साधन सेनाध्यक्ष और सैनिक होते हैं, तो भी विजय और पराजय राजा की ही कही जाती है]।[१. व्याघ्रः= बाघ, चीता। चीता के समान छिन कर शत्रुयों को पकड़े (सत्यार्थप्रकाश, समुल्लास ६)।]

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    विषय

    शत्रुनाशक सेनापति की नियुक्ति।

    भावार्थ

    (यः) जो (इमम्) इस (मणिम्) मणि, प्रतिष्ठा और वीरता के सूचक चिह्न को (बिभर्त्ति) धारण करता है (सः) वह (व्याघ्रोः भवति) व्याघ्र के समान शूरवीर (अथो सिंहः) और सिंह के समान पराक्रमी, (अथो वृषा) बैल के समान प्रजा के भार को अपने कन्धों पर उठाने वाला और (अथो सपत्न-कर्शनः) अपने शत्रुओं का जीतने वाला होता है। अर्थात् इन गुणों के धारण करने वाले धीर, वीर पराक्रमी पुरुष को उस मणि या पदक को धारण करने का अधिकार है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुक्र ऋषिः। कृत्यादूषणमुत मन्त्रोक्ता देवताः। १, ६, उपरिष्टाद् बृहती। २ त्रिपाद विराड् गायत्री। ३ चतुष्पाद् भुरिग् जगती। ७, ८ ककुम्मत्यौ। ५ संस्तारपंक्तिर्भुरिक्। ९ पुरस्कृतिर्जगती। १० त्रिष्टुप्। २१ विराटत्रिष्टुप्। ११ पथ्या पंक्तिः। १२, १३, १६-१८ अनुष्टुप्। १४ त्र्यवसाना षट्पदा जगती। १५ पुरस्ताद बृहती। १३ जगतीगर्भा त्रिष्टुप्। २० विराड् गर्भा आस्तारपंक्तिः। २२ त्र्यवसाना सप्तपदा विराड् गर्भा भुरिक् शक्वरी। द्वाविंशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Pratisara Mani

    Meaning

    The man who wears this jewel of distinction is a very tiger, lion indeed, generous as the virile bull who destroys the adversaries that dare to challenge us.

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    Translation

    He verily becomes a tiger, he a lion, he a bull, he a subduer of rivals, whoever puts on this blessing.

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    Translation

    He who receives and wears this Mani is like a tiger, like a lion and like a bull and is the subduer of enemies.

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    Translation

    Powerful like a tiger is he, he is a lion and a bull in strength, subduer of his foes is he, who follows the excellent Vedic teachings.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १२−(सः) पुरुषः (इत्) एव (व्याघ्रः) व्याघ्र इव शक्तिमान् (भवति) (अथो) अपि च (सिंहः) सिंह इव (वृषा) बलीवर्द इव (अथो) (सपत्नकर्शनः) कृश तनूकरणे-ल्युट्। शत्रूणां दुर्बलकरः (यः) (बिभर्ति) धरति (इमम्) प्रसिद्धं वेदरूपम् (मणिम्) म० १। श्रेष्ठनियमम् ॥

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