अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 5/ मन्त्र 19
सूक्त - शुक्रः
देवता - कृत्यादूषणम् अथवा मन्त्रोक्ताः
छन्दः - जगतीगर्भा त्रिष्टुप्
सूक्तम् - प्रतिसरमणि सूक्त
ऐ॑न्द्रा॒ग्नं वर्म॑ बहु॒लं यदु॒ग्रं विश्वे॑ दे॒वा नाति॒विध्य॑न्ति॒ सर्वे॑। तन्मे॑ त॒न्वं त्रायतां स॒र्वतो॑ बृ॒हदायु॑ष्माञ्ज॒रद॑ष्टि॒र्यथासा॑नि ॥
स्वर सहित पद पाठऐ॒न्द्रा॒ग्नम् । वर्म॑ । ब॒हु॒लम् । यत् । उ॒ग्रम् । विश्वे॑ । दे॒वा: । न । अ॒ति॒ऽविध्य॑न्ति । सर्वे॑ । तत्। मे॒ । त॒न्व᳡म् । त्रा॒य॒ता॒म् । स॒र्वत॑: । बृ॒हत् । आयु॑ष्मान् । ज॒रतऽअ॑ष्टि: । यथा॑ । असा॑नि ॥५.१९॥
स्वर रहित मन्त्र
ऐन्द्राग्नं वर्म बहुलं यदुग्रं विश्वे देवा नातिविध्यन्ति सर्वे। तन्मे तन्वं त्रायतां सर्वतो बृहदायुष्माञ्जरदष्टिर्यथासानि ॥
स्वर रहित पद पाठऐन्द्राग्नम् । वर्म । बहुलम् । यत् । उग्रम् । विश्वे । देवा: । न । अतिऽविध्यन्ति । सर्वे । तत्। मे । तन्वम् । त्रायताम् । सर्वत: । बृहत् । आयुष्मान् । जरतऽअष्टि: । यथा । असानि ॥५.१९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 5; मन्त्र » 19
भाषार्थ -
(यत्) जो (बहुलम्) बहुसुखदायक, (उग्रम्) तथा भयावह (ऐन्द्राग्नम्) सम्राट् और अग्रणी [प्रधानमन्त्री] में परस्पर सहयोग तथा सहकारिता रूप (वर्म) कवच है, उसका (विश्वे देवाः) समग्र विजिगीषु परकीय सैनिक तथा (सर्वे) परकीय सब अधिकारी भी (अति विध्यन्ति न) अतिवेधन नहीं कर पाते। (तत्) वह “ऐन्द्राग्न" वर्म अर्थात् कवच (मे) मेरी (तन्वम्) तनू तथा तनय आदि की (सर्वतः) सब प्रकार से (बृहत् त्रायताम्) महारक्षा करे, (यथा) जिससे कि (आयुष्मान्) दीर्घायुः तथा (जरदष्टिः) जरावस्था को (असानि) मैं प्राप्त हो जाऊं।
टिप्पणी -
[ऐन्द्राग्नम् =यह देवताद्वन्द है, समस्त पद है। इस समस्त पद में इन का परस्पर सहयोग और सहकारिता की भावना अन्तर्गर्भित अथा अन्तर्भावित है। इन्द्र और अग्नि में से एक-एक कवचरूप नहीं, अपितु इनमें परस्पर मेल ही कवचरूप है। इसी प्रकार की भावना वेदोक्त अन्य "देवताद्वन्द्वों" में भी जाननी चाहिये। यथा “इन्द्रावरुणा" इन्द्र अर्थात् सूर्य और वरुण अर्थात् मेघ में; या इन्द्र अर्थात् सम्राट् और वरुण अर्थात् राजा१ में; "इन्द्राग्नी" सूर्य और अग्नि में; "इन्द्रासोमा" सूर्य और चन्द्रमा में; "इन्द्रापूषणा" सूर्य और पृथिवी में, या सम्राट् और खाद्य वस्तुओं के अधिकारी में है। इसी प्रकार अन्य "देवताद्वन्द्व" पदों में भी सहयोगिता तथा सहकारिता जाननी चाहिये। बहुलम्= बहु [सुखम्] लाति आदत्ते इति। देवाः= "दिवु क्रीडाविजिगीषा" आदि (दिवादिः)। तन्वम् = राष्ट्र तथा साम्राज्य का प्रत्येक प्रजाजन, निज तनू तथा निज सन्तानों की महारक्षा, तथा दीर्घायुष्या, "ऐन्द्राग्न" वर्म अर्थात् कवच से चाहता है]| [१. इन्द्रश्च सम्राड् वरुणश्च राजा (यजु० ८।३७)।]