अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 5/ मन्त्र 2
सूक्त - शुक्रः
देवता - कृत्यादूषणम् अथवा मन्त्रोक्ताः
छन्दः - त्रिपदा विराड्गायत्री
सूक्तम् - प्रतिसरमणि सूक्त
अ॒यं म॒णिः स॑पत्न॒हा सु॒वीरः॒ सह॑स्वान्वा॒जी सह॑मान उ॒ग्रः। प्र॒त्यक्कृ॒त्या दू॒षय॑न्नेति वी॒रः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । म॒णि: । स॒प॒त्न॒ऽहा । सु॒ऽवीर॑: । सह॑स्वान् । वा॒जी । सह॑मान: । उ॒ग्र: । प्र॒त्यक् । कृ॒त्या: । दूषय॑न् । ए॒ति॒ । वी॒र: ॥५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं मणिः सपत्नहा सुवीरः सहस्वान्वाजी सहमान उग्रः। प्रत्यक्कृत्या दूषयन्नेति वीरः ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । मणि: । सपत्नऽहा । सुऽवीर: । सहस्वान् । वाजी । सहमान: । उग्र: । प्रत्यक् । कृत्या: । दूषयन् । एति । वीर: ॥५.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(अयम् मणिः) यह मणि (सपत्नहा) शत्रु का हनन कर्त्ता, (सुवीरः) उत्तम वीरों वाला, (सहस्वान्) बलवान्, (वाजी) वेग वाला, (सहमानः) पराभवकर्ता (उग्र) तथा उग्र स्वभाव वाला है। (वीर) यह वीर (कृत्याः) कर्तन योग्य, छेदन-भेदन करने योग्य शत्रु सेनाओं को (दूषयन्) दूषित करता हुआ (प्रत्यक्) हमारे अभिमुख (एति) आता है।
टिप्पणी -
[मन्त्र में कथित विशेषण वीर सेनाध्यक्ष के सम्बन्ध में चरितार्थ होते हैं, काष्ठनिर्मित मणि के सम्बन्ध में नहीं। दूषयन्- दुष वैकृत्ये (दिवादिः) वैकृत्य का अर्थ है विकृति। शत्रु सेना को छिन्न-भिन्न कर भगा देना, और उन्हें तितर-बितर कर देना यह शत्रुसेना को दूषित करना है। प्रत्यक् एति= विजय पाकर सेनाध्यक्ष निज प्रजा के अभिमुख लौटता है। कृत्याः= पृतनाः (मन्त्र ८)]।