अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 5/ मन्त्र 18
सूक्त - शुक्रः
देवता - कृत्यादूषणम् अथवा मन्त्रोक्ताः
छन्दः - चतुष्पदा भुरिग्जगती
सूक्तम् - प्रतिसरमणि सूक्त
वर्म॑ मे॒ द्यावा॑पृथि॒वी वर्माह॒र्वर्म॒ सूर्यः॑। वर्म॑ म॒ इन्द्र॑श्चा॒ग्निश्च॒ वर्म॑ धा॒ता द॑धातु मे ॥
स्वर सहित पद पाठवर्म॑ । मे॒ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । वर्म॑ । अह॑:। वर्म॑ । सूर्य॑: । वर्म॑ । मे॒ । इन्द्र॑: । च॒ । अ॒ग्नि: । च॒ । वर्म॑ । धा॒ता । द॒धा॒तु॒ । मे॒ ॥५.१८॥
स्वर रहित मन्त्र
वर्म मे द्यावापृथिवी वर्माहर्वर्म सूर्यः। वर्म म इन्द्रश्चाग्निश्च वर्म धाता दधातु मे ॥
स्वर रहित पद पाठवर्म । मे । द्यावापृथिवी इति । वर्म । अह:। वर्म । सूर्य: । वर्म । मे । इन्द्र: । च । अग्नि: । च । वर्म । धाता । दधातु । मे ॥५.१८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 5; मन्त्र » 18
भाषार्थ -
(द्यावापृथिवी) द्युलोक और पृथिवीलोक (मे) मेरे के लिये (वर्म) कवच हों, (अहः) दिन (वर्म) कवच हो, (सूर्यः) सूर्य (वर्म) कवच हो, (इन्द्रः च) विद्युत् (अग्निः च) और अग्नि (वर्म) कवच हो, (धाता) विधाता परमेश्वर (मे) मेरे लिये (वर्म) अपने आप को कवचरूप में स्थापित करे।
टिप्पणी -
[मानुष-सपत्नों का प्रभाव हो जाने पर [मन्त्र ७] सम्राट्, प्राकृतिक शक्तियों और विधाता अपने कवचरूप में स्थापित करने की प्रार्थना विधाता से करता है]।