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  • अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 5/ मन्त्र 20
    सूक्त - शुक्रः देवता - कृत्यादूषणम् अथवा मन्त्रोक्ताः छन्दः - विराड्गर्भास्तारपङ्क्तिः सूक्तम् - प्रतिसरमणि सूक्त

    आ मा॑रुक्षद्देवम॒णिर्म॒ह्या अ॑रि॒ष्टता॑तये। इ॒मं मे॒थिम॑भि॒संवि॑शध्वं तनू॒पानं॑ त्रि॒वरू॑थ॒मोज॑से ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । मा॒ । अ॒रु॒क्ष॒त् । दे॒व॒ऽम॒णि: । म॒ह्यै । अ॒रि॒ष्टऽता॑तये । इ॒मम् । मे॒थिम् । अ॒भि॒ऽसंवि॑शध्वम् । त॒नू॒ऽपान॑म् । त्रि॒ऽवरू॑थम् । ओज॑से ॥५.२०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ मारुक्षद्देवमणिर्मह्या अरिष्टतातये। इमं मेथिमभिसंविशध्वं तनूपानं त्रिवरूथमोजसे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । मा । अरुक्षत् । देवऽमणि: । मह्यै । अरिष्टऽतातये । इमम् । मेथिम् । अभिऽसंविशध्वम् । तनूऽपानम् । त्रिऽवरूथम् । ओजसे ॥५.२०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 5; मन्त्र » 20

    भाषार्थ -
    (देवमणिः) दिव्यगुणी मणि अर्थात् पुरुषरत्न सेनाध्यक्ष (मा) मुझ पर (आ अरुक्षत्) आरूढ़ हुआ है, (मह्यै अरिष्टतातये) साम्राज्य या राष्ट्र के महा-अरिष्ट के लिये। (मेथिम्) शत्रुहिंसक (इमम्) इस देवमणि के सैन्य में (अभिसंविशध्वम्) प्रवेश पाओ (ओजसे) साम्राज्य और राष्ट्र के ओजस की समृद्धि के लिये यह सैन्य (तनूपानम्) तनूओं और सन्तानों का पालक है, और (त्रिवरूथम्) तीन साधनों द्वारा शत्रु का निवारक है।

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