अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 5/ मन्त्र 17
सूक्त - शुक्रः
देवता - कृत्यादूषणम् अथवा मन्त्रोक्ताः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - प्रतिसरमणि सूक्त
अ॑सप॒त्नं नो॑ अध॒राद॑सप॒त्नं न॑ उत्त॒रात्। इन्द्रा॑सप॒त्नं नः॑ प॒श्चाज्ज्योतिः॑ शूर पु॒रस्कृ॑धि ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स॒प॒त्नम् । न॒: । अ॒ध॒रात् । अ॒स॒प॒त्नम् । न॒: । उ॒त्त॒रात् । इन्द्र॑ । अ॒स॒प॒त्नम् । न॒: । प॒श्चात् । ज्योति॑: । शू॒र॒ । पु॒र: । कृ॒धि॒॥५.१७॥
स्वर रहित मन्त्र
असपत्नं नो अधरादसपत्नं न उत्तरात्। इन्द्रासपत्नं नः पश्चाज्ज्योतिः शूर पुरस्कृधि ॥
स्वर रहित पद पाठअसपत्नम् । न: । अधरात् । असपत्नम् । न: । उत्तरात् । इन्द्र । असपत्नम् । न: । पश्चात् । ज्योति: । शूर । पुर: । कृधि॥५.१७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 5; मन्त्र » 17
भाषार्थ -
(शुर ! इन्द्रः) हे शूर ! सम्राट् ! (अधरात) दक्षिण से (नः) हम प्रजाजनों को (असपत्नम्) शत्रुरहित (कृधि) कर (नः) हम प्रजाजनों को (उत्तरात्) उत्तर से (असपत्नम्) शत्रुरहित (कृधि) कर। (नः) हम प्रजाजनों को (पश्चात्) पश्चिम से (असपत्नम्) शत्रुरहित (कृधि) कर (पुरः) पूर्व से शत्रु रहित (कृधि) कर, इस प्रकार हमारे संमुख (ज्योतिः) ज्योति प्रकट कर अर्थात् हमारे जीवन और लक्ष्य अन्धकारमय न हों।
टिप्पणी -
[सेनाध्यक्ष तो शूर होता ही है। सम्राट् को भी शूर होना चाहिये, ताकि साम्राज्य के चहुदिशि सपनों का अभाव हो और प्रजाजनों के संमुख आशा और उत्साह की ज्योति जगमगाती रहे।]