अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 7/ मन्त्र 9
सूक्त - अथर्वा
देवता - भैषज्यम्, आयुष्यम्, ओषधिसमूहः
छन्दः - द्विपदार्ची भुरिगनुष्टुप्
सूक्तम् - ओषधि समूह सूक्त
अ॒वको॑ल्बा उ॒दका॑त्मान॒ ओष॑धयः। व्यृषन्तु दुरि॒तं ती॑क्ष्णशृ॒ङ्ग्यः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒वका॑ऽउल्बा: । उ॒दक॑ऽआत्मान: । ओष॑धय: । वि । ऋ॒ष॒न्तु॒ । दु॒:ऽइ॒तम् । ती॒क्ष्ण॒ऽशृ॒ङ्ग्य᳡: ॥७.९॥
स्वर रहित मन्त्र
अवकोल्बा उदकात्मान ओषधयः। व्यृषन्तु दुरितं तीक्ष्णशृङ्ग्यः ॥
स्वर रहित पद पाठअवकाऽउल्बा: । उदकऽआत्मान: । ओषधय: । वि । ऋषन्तु । दु:ऽइतम् । तीक्ष्णऽशृङ्ग्य: ॥७.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 7; मन्त्र » 9
भाषार्थ -
(अवकोल्बाः) काई से लिपटी हुई, (उदकात्मानः) जलोत्पन्न, (तीक्ष्णशृङ्ग्यः) तीक्ष्ण काटों वाली (ओषधयः) ओषधियां, (दुरितम्) दुष्कर्मों द्वारा प्राप्त [यक्ष्म] को (व्यृषन्तु) विगत करें, दूर करें। उल्ब = गर्भस्थ शिशु पर लिपटी हुई झिल्ली।
टिप्पणी -
[व्यृषन्तु = वि + ऋषी गतौ (तुदादिः), विगत करें। दुरितम् = दुर् (बुरे कर्मों द्वारा) + इतम् (प्राप्त)। रोगों का मूल कारण है, पाप। यथा “यक्ष्मम्, एनस्यम्" (मन्त्र ३)। "अवका" अर्थात् काई उदक में पैदा होती है। अतः ये ओषधियां उदकात्मा हैं। "तीक्ष्णशृङ्गी" ओषधियां भी यक्ष्म निवारक हैं]।