अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 9/ मन्त्र 18
सूक्त - काङ्कायनः
देवता - अर्बुदिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुनिवारण सूक्त
उद्वे॑पय॒ त्वम॑र्बुदे॒ऽमित्रा॑णाम॒मूः सिचः॑। जयां॑श्च जि॒ष्णुश्चा॒मित्राँ॒ जय॑ता॒मिन्द्र॑मेदिनौ ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । वे॒प॒य॒ । त्वम् । अ॒र्बु॒दे॒ । अ॒मित्रा॑णाम् । अ॒मू: । सिच॑: । जय॑न् । च॒ । जि॒ष्णु: । च॒ । अ॒मित्रा॑न् । जय॑ताम् । इन्द्र॑ऽमेदिनौ ॥११.१८॥
स्वर रहित मन्त्र
उद्वेपय त्वमर्बुदेऽमित्राणाममूः सिचः। जयांश्च जिष्णुश्चामित्राँ जयतामिन्द्रमेदिनौ ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । वेपय । त्वम् । अर्बुदे । अमित्राणाम् । अमू: । सिच: । जयन् । च । जिष्णु: । च । अमित्रान् । जयताम् । इन्द्रऽमेदिनौ ॥११.१८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 9; मन्त्र » 18
मन्त्रार्थ -
(न्यर्बुदे) हे विद्युदस्त्र प्रयोक्ता सेनाध्यक्ष ! (त्वम् अमि त्राणाम् अमूः सिचः) तू शत्रुओं की उन संग्राम में शस्त्र वर्षा करने वाली सेनाओं को (उदुवेपय) कम्पादे (जयन् जिष्णुः च) जय करता हुआ और जयशील दोनों (इन्द्रमेदिनौ) राजा को स्निग्ध करने वाले राजा के प्यारे अदि और न्युर्बुदि मेढ़ा तोप दौलताबाद किले में हैदराबाद में है। विद्युदस्त्रप्रोक्ता और स्फोटकास्त्र प्रयोक्ता दोनों (अमित्रान् जयताम्) शत्रुओं को जीतें ॥१८॥
टिप्पणी -
रावण के दश शिर, हनुमान् की पूंछ, आज कल हस्ति सेना श्रड़कोश में स्फोटक पदार्थ आदि " यन्त्रवृषभ " आरे अघा को वित्था ददर्श यं युञ्जन्ति तम्वास्थापयन्ति । नास्मै तृणं नोदकमा भरन्त्युत्तरो धुरो वहति प्रदेदिशत् ॥ (ऋ० १०/१०२/१०)
विशेष - ऋषिः - काङ्कायनः (अधिक प्रगतिशील वैज्ञानिक) "ककि गत्यर्थ" [स्वादि०] कङ्क-ज्ञान में प्रगतिशील उससे भी अधिक आगे बढा हुआ काङ्कायनः। देवता-अबुदि: "अबु दो मेघ:" [निरु० ३|१०] मेघों में होने वाला अर्बुदि-विद्युत् विद्युत का प्रहारक बल तथा उसका प्रयोक्ता वैद्युतास्त्रप्रयोक्ता सेनाध्यक्ष “तदधीते तद्वेद” छान्दस इञ् प्रत्यय, आदिवृद्धि का अभाव भी छान्दस । तथा 'न्यर्बु''दि' भी आगे मन्त्रों में आता है वह भी मेघों में होने वाला स्तनयित्नु-गर्जन: शब्द-कडक तथा उसका प्रयोक्ता स्फोटकास्त्रप्रयोक्ता अर्बुदि के नीचे सेनानायक न्यर्बुदि है
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