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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 7/ मन्त्र 21
    सूक्त - अथर्वा, क्षुद्रः देवता - स्कन्धः, आत्मा छन्दः - बृहतीगर्भानुष्टुप् सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त

    असच्छा॒खां प्र॒तिष्ठ॑न्तीं पर॒ममि॑व॒ जना॑ विदुः। उ॒तो सन्म॑न्य॒न्तेऽव॑रे॒ ये ते॒ शाखा॑मु॒पास॑ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स॒त्ऽशा॒खाम् । प्र॒ऽतिष्ठ॑न्तीम् । प॒र॒मम्ऽइ॑व । जना॑: । वि॒दु: । उ॒तो इति॑ । सत् । म॒न्य॒न्ते॒ । अव॑रे । ये । ते॒ । शाखा॑म् । उ॒प॒ऽआस॑ते ॥७.२१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असच्छाखां प्रतिष्ठन्तीं परममिव जना विदुः। उतो सन्मन्यन्तेऽवरे ये ते शाखामुपासते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    असत्ऽशाखाम् । प्रऽतिष्ठन्तीम् । परमम्ऽइव । जना: । विदु: । उतो इति । सत् । मन्यन्ते । अवरे । ये । ते । शाखाम् । उपऽआसते ॥७.२१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 7; मन्त्र » 21

    पदार्थ -
    (जनाः) पामर जन (प्रतिष्ठन्तीम्) फैलती हुई (असच्छाखाम्) असत् [अनित्य कार्यरूप जगत्] की व्याप्ति को (परमम् इव) परम उत्कृष्ट पदार्थ के समान (विदुः) जानते हैं। (उतो) और (ये) जो (अवरे) पीछे होनेवाले, [कार्यरूप जगत्] में (सत्) सत् [नित्य कारण] को (मन्यन्ते) मानते हैं, वे [लोग] (ते) तेरी (शाखाम्) व्याप्ति को (उपासते) भजते हैं ॥२१॥

    भावार्थ - अज्ञानी मनुष्य कार्यरूप संसार को परम अवधि मानते हैं, परन्तु ज्ञानी मनुष्य कार्यरूप जगत् में कारण को खोजकर आदि कारण परमात्मा की व्याप्ति को साक्षात्कार करते हैं ॥२१॥

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