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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 7/ मन्त्र 44
    सूक्त - अथर्वा, क्षुद्रः देवता - स्कन्धः, आत्मा छन्दः - एकावसाना पञ्चपदा निचृत्पदपङ्क्तिर्द्विपदार्च्यनुष्टुप् सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त

    इ॒मे म॒यूखा॒ उप॑ तस्तभु॒र्दिवं॒ सामा॑नि चक्रु॒स्तस॑राणि॒ वात॑वे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मे । म॒यूखा॑: । उप॑ । त॒स्त॒भु॒: । दिव॑म् । सामा॑नि । च॒क्रु॒: । तस॑राणि । वात॑वे ॥ ७.४४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमे मयूखा उप तस्तभुर्दिवं सामानि चक्रुस्तसराणि वातवे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमे । मयूखा: । उप । तस्तभु: । दिवम् । सामानि । चक्रु: । तसराणि । वातवे ॥ ७.४४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 7; मन्त्र » 44

    Meaning -
    These dimensions of space and time and the rays of the light of omniscience uphold the warp and woof of existence unto the heavens of light, and they create the Samans of knowledge and divine devotion and joy and also the shuttles for weaving of the web of existence for man’s rise to the heaven of joy beyond pleasure and pain.

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