यजुर्वेद - अध्याय 1/ मन्त्र 14
ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - यज्ञो देवता
छन्दः - स्वराट् जगती,
स्वरः - निषादः
2
शर्मा॒स्यव॑धूत॒ꣳ रक्षोऽव॑धूता॒ऽअरा॑त॒योऽदि॑त्या॒स्त्वग॑सि॒ प्रति॒ त्वादि॑तिर्वेत्तु। अद्रि॑रसि वानस्प॒त्यो ग्रावा॑सि पृ॒थुबु॑ध्नः॒ प्रति॒ त्वादि॑त्या॒स्त्वग्वे॑त्तु॥१४॥
स्वर सहित पद पाठशर्म॑। अ॒सि॒। अव॑धूत॒मित्यव॑ऽधूतम्। रक्षः॑। अव॑धूता॒ इत्यव॑धूताः। अरा॑तयः। अदि॑त्याः। त्वक्। अ॒सि॒। प्रति॑। त्वा॒। अदि॑तिः। वे॒त्तु॒। अद्रिः॑। अ॒सि॒। वा॒न॒स्प॒त्यः। ग्रावा॑। अ॒सि॒। पृ॒थुबु॑ध्न॒ इति॑ पृ॒थुबु॑ध्नः। प्रति॑। त्वा॒। अदि॑त्याः। त्वक्। वे॒त्तु॒ ॥१४॥
स्वर रहित मन्त्र
शर्मास्यवधूतँ रक्षोवधूताऽअरातयोदित्यास्त्वगसि प्रति त्वादितिर्वेत्तु । अद्रिरसि वानस्पत्यो ग्रावासि पृथुबुध्नः प्रति त्वादित्यास्त्वग्वेत्तु ॥
स्वर रहित पद पाठ
शर्म। असि। अवधूतमित्यवऽधूतम्। रक्षः। अवधूता इत्यवधूताः। अरातयः। अदित्याः। त्वक्। असि। प्रति। त्वा। अदितिः। वेत्तु। अद्रिः। असि। वानस्पत्यः। ग्रावा। असि। पृथुबुध्न इति पृथुबुध्नः। प्रति। त्वा। अदित्याः। त्वक्। वेत्तु॥१४॥
विषय - अदिति के सम्पर्क में
पदार्थ -
१. गत मन्त्र के अनुसार सब अशुद्धता को दूर करनेवाला तू ( शर्म असि ) = आनन्द-ही- आनन्द है, अर्थात् तेरा जीवन सचमुच आनन्दमय बना है।
२. ( रक्षः ) = राक्षसी वृत्तियाँ ( अवधूतम् ) = तुझसे सुदूर कम्पित हुई हैं, अर्थात् नष्ट हो गई हैं, साथ ही ( अरातयः ) = न देने की वृत्तियाँ भी ( अवधूताः ) = कम्पित होकर नष्ट हो गई हैं। मेरे जीवन में न भोग-विलासवाली राक्षसी वृत्तियाँ हैं और न ही अदान की वृत्ति है। भोगमय जीवन ही हमें कृपण बनाता है।
३. ( अदित्याः त्वक् असि ) = अदिति का तू संस्पर्श [ त्वच् =Touch ] करनेवाला है। अदीना देवमाता के साथ तेरा सम्पर्क है और ( अदितिः ) = यह अदीना देवमाता भी ( त्वा ) = तुझे ( प्रतिवेत्तु ) = सम्यक्तया जाने। तू अदिति से परिचित हो, अदिति तुझसे। इस प्रकार अदिति से तेरा घनिष्ठ सम्बन्ध हो। प्रभु ने अदिति की गोद में ही तो तुझे बिठाया है [ मन्त्र ११ ]। संक्षेप में तू अदीन, अकृपण, हीनता की भावना से रहित ‘बहुलाभिमानः’ = आत्म-सम्मान की भावनावाला हो और अपने अन्दर दिव्य गुणों का विकास करनेवाला हो।
४. इन्हीं दिव्य गुणों के विकास के कारण तू ( अद्रिः ) = न विदारण के योग्य—धर्म-पथ से विचलित न होने योग्य ( असि ) = है [ न दृ ], तथा आदरणीय [ आ+दृ ] बना है।
५. ( वानस्पत्यः ) = तेरा यह सारा क्षेत्र [ अन्नमय आदि कोश ] वनस्पति का ही विकार है, अर्थात् तूने वनस्पति भोजन को ही स्वीकार किया है। शाकाहारी होने से ही तुझमें राक्षसी वृत्तियाँ नहीं पनपीं।
६. ( ग्रावा असि ) = तू [ गृ ] वेदवाणियों का उच्चारण करनेवाला है [ ग्रह् वन् आदन्तादेशः ] अथवा ज्ञान-विज्ञानों का ग्रहण करनेवाला है।
७. ( पृथुबुध्नः ) = तू विशाल मूलवाला है। तूने अपनी उन्नति की नींव व्यापक बनाई है। तू शरीर, मन व मस्तिष्क सभी का ध्यान करके चला है। बस, अन्त में यही कहना है कि ( त्वा ) = तुझे ( अदित्याः त्वक् ) = अदिति का सम्पर्क ( प्रतिवेत्तु ) = प्राप्त हो। तू सदा अदीन देवमाता के सम्पर्क में निवास कर।
भावार्थ -
भावार्थ — अदिति के सम्पर्क में रहने से हमारा जीवन सुन्दर व शिव हो।
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