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  • यजुर्वेद - अध्याय 1/ मन्त्र 24
    ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः देवता - द्योविद्युतौ देवते छन्दः - स्वराट् ब्राह्मी पङ्क्ति, स्वरः - पञ्चमः
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    दे॒वस्य॑ त्वा सवि॒तुः प्र॑स॒वेऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ता॑भ्याम्। आद॑देऽध्वर॒कृतं॑ दे॒वेभ्य॒ऽइन्द्र॑स्य बा॒हुर॑सि॒ दक्षि॑णः स॒हस्र॑भृष्टिः श॒तते॑जा वा॒युर॑सि ति॒ग्मते॑जा द्विष॒तो व॒धः॥२४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वस्य॑। त्वा॒। स॒वि॒तुः। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वे। अ॒श्विनोः॑। बा॒हुभ्या॒मिति॑ बा॒हुऽभ्या॑म्। पू॒ष्णः। हस्ता॑भ्याम्। आ। द॒दे॒। अ॒ध्व॒र॒कृत॒मित्य॑ध्वर॒ऽकृत॑म् दे॒वेभ्यः॑। इन्द्र॑स्य। बा॒हुः। अ॒सि॒। दक्षि॑णः। स॒हस्र॑भृष्टि॒रिति॑ स॒हस्र॑ऽभृष्टिः। श॒तते॑जा॒ इति श॒तऽते॑जाः। वा॒युः। अ॒सि॒। ति॒ग्मते॑जा॒ इति॑ ति॒ग्मऽते॑जाः। द्वि॒ष॒तः। व॒धः ॥२४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेश्विनोर्बाहुभ्याम्पूष्णो हस्ताभ्याम् । आददेध्वरकृतन्देवेभ्यऽइन्द्रस्य बाहुरसि दक्षिणः सहस्रभृष्टिः शततेजा वायुरसि तिग्मतेजा द्विषतो बधः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    देवस्य। त्वा। सवितुः। प्रसव इति प्रऽसवे। अश्विनोः। बाहुभ्यामिति बाहुऽभ्याम्। पूष्णः। हस्ताभ्याम्। आ। ददे। अध्वरकृतमित्यध्वरऽकृतम् देवेभ्यः। इन्द्रस्य। बाहुः। असि। दक्षिणः। सहस्रभृष्टिरिति सहस्रऽभृष्टिः। शततेजा इति शतऽतेजाः। वायुः। असि। तिग्मतेजा इति तिग्मऽतेजाः। द्विषतः। वधः॥२४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 1; मन्त्र » 24
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    पदार्थ -

    १. [ क ] मैं ( त्वा ) = तुझे [ प्रत्येक पदार्थ को ] ( सवितुः देवस्य ) = उस प्रेरक, दिव्य गुणों के पुञ्ज प्रभु की  ( प्रसवे ) = अनुज्ञा में ( आददे ) = ग्रहण करता हूँ। प्रभु की आज्ञा यही है कि ‘माप-तोलकर’ भोग कर। न अतियोग, न अयोग, अपितु यथायोग सेवन कर। [ ख ] ( अश्विनोः बाहुभ्याम् ) = प्राणापानों के प्रयत्न से, अर्थात् मैं प्रत्येक वस्तु को अपने पुरुषार्थ से कमाकर ग्रहण करता हूँ, किसी वस्तु को सेंतमेंत [ बिना मूल्य ] लेने की कामना नहीं करता। [ ग ] ( पूष्णोः हस्ताभ्याम् ) = पूषा के हाथों से, अर्थात् पोषण के दृष्टिकोण से ही मैं किसी भी वस्तु का प्रयोग करता हूँ। [ घ ] ( देवेभ्यः अध्वरकृतम् ) = देवताओं के लिए यज्ञ में अर्पित की गई वस्तु के यज्ञशेष को ही मैं ग्रहण करता हूँ। तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुंक्ते स्तेन एव सः। जो देवताओं से दी गई वस्तुओं को बिना देवों को दिये खाता है, वह चोर ही है। सारे पदार्थ ‘सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, जल, वायु’ आदि देवों की कृपा से हमें प्राप्त होते हैं। इन देवप्रदत्त पदार्थों को यज्ञ द्वारा देवार्पण करके ही बचे हुए को खाना चाहिए। त्यक्त्येन भुञ्जीथाः की भावना यही तो है। 

    २. जो व्यक्ति उल्लिखित चार बातों का ध्यान रखते हुए सांसारिक पदार्थों को स्वीकार करता है, वह ( इन्द्रस्य ) = शक्तिशाली कर्मों को करनेवाले प्रभु का ( दक्षिणः बाहुः ) = दाँया हाथ ( असि ) = बनता है, अर्थात् प्रभु उसे निमित्त बनाकर उत्तमोत्तम कार्य किया करते हैं। ये व्यक्ति अत्यन्त महान् कार्यों को करते हुए दीखते हैं, हमें ये सामान्य पुरुष न लगकर महामानव प्रतीत होने लगते हैं।

    ३. ( सहस्रभृष्टिः ) = यह व्यक्ति कार्यों में उपस्थित होनेवाले सहस्रों विघ्नों को नष्ट करनेवाला होता है—उन्हें भून डालनेवाला होता है। 

    ४. ( शततेजाः ) = इसका जीवन सौ-के-सौ वर्ष तेजस्वी बना रहता है। भोग-मार्ग को न अपनाने से यह कभी क्षीणशक्तिवाला नहीं होता। 

    ५. ( वायुः असि ) = यह वायु की भाँति निरन्तर क्रियाशील होता है ‘वा गतिगन्धनयोः’। यह अपनी क्रियाशीलता के द्वारा सब बुराइयों का हिंसन करनेवाला होता है। 

    ६. ( तिग्मतेजाः ) = यह प्रखर—तीव्र तेज का धारण करनेवाला होता है, इस तेजस्विता के कारण ही तो यह सब विघ्नरूप अन्धकारों को नष्ट करता हुआ अपने मार्ग पर आगे और आगे बढ़ता है। इस तेजस्विता से ही यह-

    ७. ( द्विषतो वधः ) = शत्रु का वध करनेवाला होता है। द्वेषरूप शत्रु ही सर्वमहान् शत्रु है और तेजस्विता के साथ इसका समानाधिकरण्य [ एक स्थान पर रहना ] कभी नहीं होता। जहाँ तेजस्विता है वहाँ द्वेष नहीं, जैसे जहाँ प्रकाश है वहाँ अन्धकार नहीं। इसलिए ‘शत-तेजाः’ व ‘तिग्मतेजाः’ यह द्वेष को अपने से दूर करनेवाला होता है।

    भावार्थ -

    भावार्थ — हम प्रयत्न करके वस्तुओं का ठीक प्रयोग करें, और ‘प्रभु का दाहिना हाथ’ बनने का प्रयत्न करें, परिणामतः हममें वह तेज आएगा जिसमें द्वेष आदि का सब कूड़ा-करकट भस्म हो जाता है।

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