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  • यजुर्वेद - अध्याय 1/ मन्त्र 22
    ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः देवता - प्रथतामितिपर्य्यन्तस्य यज्ञो देवता । अन्त्यस्याग्निवितारौ देवते छन्दः - भुरिक् त्रिष्टुप्,गायत्री, स्वरः - षड्जः
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    जन॑यत्यै त्वा॒ संयौ॑मी॒दम॒ग्नेरि॒दम॒ग्नीषोम॑योरि॒षे त्वा॑ घ॒र्मोऽसि वि॒श्वायु॑रु॒रुप्र॑थाऽउ॒रु प्र॑थस्वो॒रु ते॑ य॒ज्ञप॑तिः प्रथताम॒ग्निष्टे॒ त्वचं॒ मा हि॑ꣳसीद् दे॒वस्त्वा॑ सवि॒ता श्र॑पयतु॒ वर्षि॒ष्ठेऽधि॒ नाके॑॥ २२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    जन॑यत्यै। त्वा॒। सम्। यौ॒मि॒। इ॒दम्। अ॒ग्नेः। इ॒दम्। अ॒ग्नीषोम॑योः। इ॒षे। त्वा॒। घ॒र्मः। अ॒सि॒। वि॒श्वायु॒रिति॑ वि॒श्वऽआ॑युः। उ॒रुप्र॑था॒ इत्यु॒रुऽप्र॑थाः। उ॒रु। प्र॒थ॒स्व॒। उ॒रु। ते॒। य॒ज्ञप॑ति॒रिति॑ य॒ज्ञऽप॑तिः। प्र॒थ॒ता॒म्। अ॒ग्निः। ते॒। त्वच॑म्। मा। हि॒ꣳसी॒त्। दे॒वः। त्वा॒। स॒वि॒ता। श्र॒प॒य॒तु॒। वर्षि॑ष्ठे। अधि॑। नाके॑ ॥२२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जनयत्यै त्वा संयौमीदमग्नेरिदमग्नीषोमयोरिषे त्वा घर्मासि विश्वायुरुरुप्रथाऽउरु प्रथस्वोरु ते यज्ञपतिः प्रथतामग्निष्टे त्वचम्मा हिँसीद्देवस्त्वा सविता श्रपयतु वर्षिष्ठेधि नाके ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    जनयत्यै। त्वा। सम्। यौमि। इदम्। अग्नेः। इदम्। अग्नीषोमयोः। इषे। त्वा। घर्मः। असि। विश्वायुरिति विश्वऽआयुः। उरुप्रथा इत्युरुऽप्रथाः। उरु। प्रथस्व। उरु। ते। यज्ञपतिरिति यज्ञऽपतिः। प्रथताम्। अग्निः। ते। त्वचम्। मा। हिꣳसीत्। देवः। त्वा। सविता। श्रपयतु। वर्षिष्ठे। अधि। नाके॥२२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 1; मन्त्र » 22
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    पदार्थ -

    हम अपने गृहस्थ को स्वर्ग कैसे बना सकते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर प्रस्तुत मन्त्र में देखिए—पत्नी पति से कहती है— १. ( त्वा जनयत्यै संयौमि ) = एक उत्तम सन्तान को जन्म देने के लिए मैं आपके साथ मेल करती हूँ, ‘जनयती’ बनने के लिए। वस्तुतः गृहस्थ में प्रवेश का मुख्य प्रयोजन उत्तम सन्तान का निर्माण है। पति-पत्नी परस्पर विलास के लिए एकत्र नहीं होते। 

    २. इस मेल का परिणाम जो [ अपत्यम् ] सन्तान है ( इदम् ) = यह ( अग्नेः ) = अग्नि नामक प्रभु का ही है, वह हमारा नहीं है। पति-पत्नी को इस पवित्र भावना से चलना और सन्तान को प्रभु का ही समझना चाहिए। 

    ३. ( इदम् ) = यह सन्तान ( अग्नीषोमयोः ) =  अग्नि और सोमतत्त्व का है। इसमें ‘अग्नि’ तत्त्व भी है और ‘सोम’ तत्त्व भी। पिता से इसने अग्नितत्त्व प्राप्त किया है तो माता से सोमतत्त्व। जीवन का रस इन दोनों तत्त्वों के मेल पर ही निर्भर है। 

    ४. ( इषे त्वा ) = अन्न-प्राप्ति के लिए मैं आपका ध्यान करती हूँ। अन्न के बिना घर के किसी भी कार्य का चलना सम्भव नहीं है। 

    ५. ( घर्मः असि ) = इस उत्तम अन्न के सेवन से तू प्राणशक्ति को प्राप्त हुआ है [ घर्मः सोमः ], तू शक्ति का पुञ्ज बना है। 

    ६. ( विश्वायुः ) = तू पूर्ण आयुवाला है—व्यापक जीवनवाला है। तूने अपने जीवन में शरीर, मन व मस्तिष्क तीनों की उन्नति का सम्पादन किया है।

    ७. ( उरुप्रथाः ) = तू खूब विस्तारवाला बना है [ प्रथ विस्तारे ], ( उरु प्रथस्व ) = तू खूब विस्तार को प्राप्त हो। तू जहाँ अपनी सब शक्तियों का विस्तार करे वहाँ तेरा हृदय भी विशाल हो। 

    ८. ( यज्ञपतिः ) = सब यज्ञों का रक्षक प्रभु ( ते ) = तेरी सब शक्तियों को ( उरु प्रथताम् ) =  खूब विस्तृत करे, अर्थात् तेरा जीवन भी यज्ञमय हो, यज्ञ के द्वारा ही शक्तियों का विस्तार होता है। 

    ९. इन सबसे बढ़कर बात यह है कि ( अग्निः ) =  वह परमात्मा ( ते त्वचम् ) = तेरे सम्पर्क को ( मा हिंसीत् ) = नष्ट न करे, अर्थात् प्रभु के साथ तेरा सम्पर्क सदा बना रहे। इस प्रभु-सम्पर्क ने ही उपर्युक्त सब बातों को हमारे जीवन में लाना है। 

    १०. ( सविता देवः ) =  सबका प्रेरक देव ( त्वा ) = तुझे ( श्रपयतु ) = परिपक्व बनाए। तेरी शारीरिक, मानस व बौद्धिक शक्तियों का ठीक विकास हो। इनके ठीक परिपाक के द्वारा वे प्रभु तुझे ( वर्षिष्ठे अधिनाके ) = सर्वोत्तम स्वर्ग में स्थापित करे।

    घर को स्वर्ग बनाने के लिए निम्न बातें अत्यन्त आवश्यक हैं— १. गृहस्थ को सन्तान-निर्माण का आश्रम समझा जाए। २. सन्तानों को हम प्रभु की धरोहर समझें। ३. सन्तानों में शक्ति [ अग्नि ] व शान्ति [ सोम ] के विकास का प्रयत्न करें। ४. घर में अन्न की कमी न होने दें। ५. अपनी शक्तियों को क्षीण न होने दें। ६. शरीर, मन व मस्तिष्क—तीनों का ठीक विकास करें। ७. ‘विस्तार’ हमारा आदर्श शब्द हो—हम हृदय को विशाल बनाएँ। ८. यज्ञों को हम शक्ति-विस्तार का साधन समझें। ९. प्रभु-सम्पर्क से हम कभी अलग न हों। १०. प्रभुकृपा से हमारा ठीक परिपाक हो।

    भावार्थ -

    भावार्थ — हम अपने घरों को स्वर्ग बनाने के लिए मन्त्रोक्त दस बातों को अपने जीवन में ढालें।

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