यजुर्वेद - अध्याय 1/ मन्त्र 28
ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - यज्ञो देवता
छन्दः - विराट् ब्राह्मी पङ्क्ति,
स्वरः - पञ्चमः
2
पु॒रा क्रू॒रस्य॑ वि॒सृपो॑ विरप्शिन्नुदा॒दाय॑ पृथि॒वीं जी॒वदा॑नुम्। यामैर॑यँश्च॒न्द्रम॑सि स्व॒धाभि॒स्तामु॒ धीरा॑सोऽअनु॒दिश्य॑ यजन्ते।
स्वर सहित पद पाठपु॒रा। क्रूरस्य॑। वि॒सृप॒ इति वि॒ऽसृपः॑। वि॒र॒प्शि॒न्निति॑ विऽरप्शिन्। उ॒दा॒दायेत्यु॑त्ऽआ॒दाय॑। पृ॒थि॒वीम्। जी॒वदा॑नु॒मिति॑ जी॒वऽदा॑नुम्। याम्। ऐर॑यन्। च॒न्द्रम॑सि। स्व॒धाभिः॑। ताम्। ऊँ॒ इत्यूँ॑। धीरा॑सः। अ॒नु॒दिश्येत्य॑नु॒ऽदिश्य॑। य॒ज॒न्ते॒। प्रोक्ष॑णी॒रिति॑ प्र॒ऽउक्ष॑णीः। आ। सा॒द॒य॒। द्वि॒ष॒तः। व॒धः अ॒सि॒ ॥२८॥
स्वर रहित मन्त्र
पुरा क्रूरस्य विसृपो विरप्शिन्नुदादाय पृथिवीञ्जीवदानुम् । यामैरयँश्चन्द्रमसि स्वधाभिस्तामु धीरासोऽअनुदिश्य यजन्ते । प्रोक्षणीरा सादय द्विषतो बधो सि ॥
स्वर रहित पद पाठ
पुरा। क्रूरस्य। विसृप इति विऽसृपः। विरप्शिन्निति विऽरप्शिन्। उदादायेत्युत्ऽआदाय। पृथिवीम्। जीवदानुमिति जीवऽदानुम्। याम्। ऐरयन्। चन्द्रमसि। स्वधाभिः। ताम्। ऊँ इत्यूँ। धीरासः। अनुदिश्येत्यनुऽदिश्य। यजन्ते। प्रोक्षणीरिति प्रऽउक्षणीः। आ। सादय। द्विषतः। वधः असि॥२८॥
विषय - प्रोक्षणी का आसादन—पृथिवी की चन्द्र में स्थिति, युद्धों से विरक्ति
पदार्थ -
हमें अपना जीवन इसलिए यज्ञमय बनाना चाहिए कि युद्ध दूर हो सकें। प्रस्तुत मन्त्र में कहते हैं कि १. ( क्रूरस्य ) = [ कृन्तति अङ्गानि ] जिसमें अङ्गों का छेदन-भेदन होता है, उस क्रूरता से पूर्ण युद्ध के ( विसृपः ) = [ वि+सृप् ] विशेषरूप से फैल जाने से ( पुरा ) = पहले ही हे ( विरप्शिन् ) = [ वि+रप् ] विशेषरूप से ज्ञान का उपदेश करनेवाले [ विरप्शिन् इति महत् नाम—निघ० ३।३ ] विशाल हृदय पुरुष! ( अयम् ) = यह तू इस ( जीवदानुम् ) = जीवन के लिए आवश्यक सब पदार्थों को देनेवाली ( पृथिवीम् ) = पृथिवी को ( उत् आदाय ) = इस युद्ध से ऊपर उठाकर, अर्थात् युद्ध में न फँसने देकर ( यामैः ) = अपने प्रयत्नों से—विविध चेष्टाओं से ( स्वधाभिः ) = [ स्वधा इति अन्ननाम—निघ० २।७ ] अन्नों की भरपूरता के द्वारा ( चन्द्रमसि ) = [ चदि आह्लादे ] प्रसन्नता में स्थापित कर। [ चन्द्र = हिमांशु, सुधाकर, ओषधीश — Peace, pleasure and plenty ]। चन्द्रमा शान्ति, सुख और भरपूरता का प्रतीक है। ज्ञान के उपदेष्टा को चाहिए कि वह इस पृथिवी को युद्धों में न फँसने देकर पूर्ण प्रयत्नों से शान्ति, सुख व भरपूरता में स्थापित करे। पृथिवी तो वस्तुतः अपने अन्नों से जीवन के लिए आवश्यक सब पदार्थों को प्राप्त करानेवाली है। युद्धों के कारण स्थिति विषम हो जाती है और मँहगाई बढ़कर लोगों की परेशानी का कारण हो जाती है।
२. इसलिए ( धीरासः ) = धीर, विद्वान् पुरुष ( उ ) = निश्चय से ( ताम् ) = शान्ति, सुख व समृद्धि - [ Peace, pleasure and plenty ] - वाली पृथिवी को ( अनुदिश्य ) = लक्ष्य बनाकर ( यजन्ते ) = अपने जीवनों को यज्ञशील बनाते हैं। ये धीर पुरुष लोकहित के कार्यों में प्रवृत्त होते हैं। ये लोगों को ज्ञान के प्रकाश से प्रेम का पाठ पढ़ाकर उन्हें युद्धों से दूर रखते हैं।
३. वेद कहता है कि हे धीर पुरुष! तू ( प्रोक्षणीः ) = प्रकर्षेण ज्ञान का सेवन करनेवाली क्रियाओं को ( आसादय ) = ग्रहण कर। यज्ञिय चम्मच को तू पकड़। चम्मच से जैसे अग्नि में घी डाला जाता है, उसी प्रकार तू लोगों में ज्ञान की दीप्ति [ घृत ] का सेचन करनेवाला बन। तू ( द्विषतः ) = शत्रुओं का ( वधः असि ) = समाप्त करनेवाला है, द्वेष की भावनाओं को दूर करनेवाला है। तू अपनी ज्ञान की वर्षा से द्वेष की अग्नि को बुझाकर लोगों को प्रेम का पाठ पढ़ानेवाला हो।
भावार्थ -
भावार्थ — ज्ञानी लोग अपने जीवनों को यज्ञिय बनाकर लोगों को युद्धों से दूर रक्खें, उन्हें प्रेम का पाठ पढ़ाएँ, तभी यह पृथिवी चन्द्र में स्थित होगी—सुख, शान्ति व समृद्धि से पूर्ण होगी।
टिप्पणी -
सूचना — ‘यामैरयँश्चन्द्रमसि’ का सन्धि-छेद ‘याम् ऐरयन् चन्द्रमसि’ यह भी हो सकता है और तब अर्थ इस प्रकार होगा—याम् जिस पृथिवी को चन्द्रमसि = सुख, शान्ति व समृद्धि में ऐरयन् = प्राप्त कराते हैं। इस प्रकार अर्थ में कोई अन्तर नहीं पड़ता। ‘ऐरयन्’ क्रिया का अध्याहार नहीं करना पड़ता।
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