अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 5/ मन्त्र 40
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - मन्त्रोक्ता
छन्दः - विराड्विषमागायत्री
सूक्तम् - विजय प्राप्ति सूक्त
ब्रह्मा॒भ्याव॑र्ते। तन्मे॒ द्रवि॑णं यच्छन्तु॒ तन्मे॑ ब्राह्मणवर्च॒सम् ॥
स्वर सहित पद पाठब्रह्म॑ । अ॒भि॒ऽआव॑र्ते । तत् । मे॒ । द्रवि॑णम् । य॒च्छ॒तु॒ । तत् । मे॒ । ब्रा॒ह्म॒ण॒ऽव॒र्च॒सम् ॥५.४०॥
स्वर रहित मन्त्र
ब्रह्माभ्यावर्ते। तन्मे द्रविणं यच्छन्तु तन्मे ब्राह्मणवर्चसम् ॥
स्वर रहित पद पाठब्रह्म । अभिऽआवर्ते । तत् । मे । द्रविणम् । यच्छतु । तत् । मे । ब्राह्मणऽवर्चसम् ॥५.४०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 5; मन्त्र » 40
विषय - दिशाएँ, सप्तर्षि, ब्रह्म, ब्राह्मण
पदार्थ -
१. मैं इन (ज्योतिषमती: दिश: अभि आवर्ते) = ज्योतिर्मय दिशाओं की ओर आवर्तनवाला होता है। प्रतिदिन सन्ध्या में इनका ध्यान करता हुआ इनसे आगे बढ़ने की [प्राची], नन बनने की [अवाची], इन्द्रियों को विषयों से वापस लौटाने की [प्रतीची] व ऊपर उठने की [उदीची]' प्रेरणा प्राप्त करता हूँ। २. इसी प्रकार मैं (सप्तऋषीन् अभि आवर्ते) = सात ऋषियों की ओर आवर्तनवाला होता हूँ। 'गोतम' ऋषि का स्मरण करके प्रशस्त इन्द्रियोंवाला [गावः इन्द्रियणि] बनता हूँ। 'भरद्वाज' का स्मरण मुझे शक्तिभरण का उपदेश देता है। विश्वामित्र' की तरह मैं भी सभी के प्रति प्रेमवाला होता हूँ। जाठराग्नि को न बुझने देकर 'जमदग्नि' बनता हूँ। उत्तम वसुओंवाला 'वसिष्ठ' बनता हुआ 'कश्यप'-ज्ञानी बनने के लिए अन्न करता हूँ और इसप्रकार 'अत्रि'-'काम, क्रोध, लोभ' इन तीनों से ऊपर उठता हूँ। २. (ब्रह्म अभि आवर्ते) = मैं अपने प्रत्येक अवकाश के क्षण में ज्ञान की ओर गतिवाला होता हूँ। इसी उद्देश्य से (ब्राह्मणान् अभि आवर्ते) = ज्ञानियों की ओर आवर्तनवाला होता हूँ। इनके सम्पर्क से ज्ञानी बनता हूँ। ये सब बातें मुझे द्रविण व ब्रह्मवर्चस् प्राप्त कराएँ।
भावार्थ -
दिशाओं से प्रेरणा लेता हुआ, ससऋषियों के समान आचरण करता हुआ, अवकाश के प्रत्येक क्षण को ज्ञान-प्राप्ति में लगाता हुआ, ज्ञानियों के संपर्क में चलता हुआ मैं "द्रविण व ब्रह्मवर्चस्' प्राप्त करूँ।
यह 'द्रविण के साथ ब्रह्मवर्चस्' वाला व्यक्ति विशिष्ट हव्योंवाला होता है-उत्तम त्यागवाला बनता है। यज्ञों को करता हुआ यह "विहव्य' अगले नौ मन्त्रों का ऋषि है -
इस भाष्य को एडिट करें