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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 5/ मन्त्र 42
    सूक्त - सिन्धुद्वीपः देवता - प्रजापतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - विजय प्राप्ति सूक्त

    यं व॒यं मृ॒गया॑महे॒ तं व॒धै स्तृ॑णवामहै। व्यात्ते॑ परमे॒ष्ठिनो॒ ब्रह्म॒णापी॑पदाम॒ तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम् । व॒यम् । मृ॒गया॑महे । तम् । व॒धै: । स्तृ॒ण॒वा॒म॒है॒ । वि॒ऽआत्ते॑ । प॒र॒मे॒ऽस्थिन॑: । ब्रह्म॑णा । आ । अ॒पी॒प॒दा॒म॒ । तम् ॥५.४२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यं वयं मृगयामहे तं वधै स्तृणवामहै। व्यात्ते परमेष्ठिनो ब्रह्मणापीपदाम तम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यम् । वयम् । मृगयामहे । तम् । वधै: । स्तृणवामहै । विऽआत्ते । परमेऽस्थिन: । ब्रह्मणा । आ । अपीपदाम । तम् ॥५.४२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 5; मन्त्र » 42

    पदार्थ -

    १. (यम्) = जिस भी काम, क्रोध व लोभरूप शत्रु को (वयम्) = हम (मृगयामहे) = ढूँढ पाते हैं, (तम्) = उसे (वधैः) = हनन-साधन आयुधों द्वारा (स्तृणवामहै) = समास करते हैं [स्तृणातिबंधकर्मा-नि० २।१९] । २. (तम्) = उस शत्रु को ब्रह्मणा वेदज्ञान द्वारा (परमेष्ठिन:) = परम स्थान में स्थित प्रभु की (व्याते) = खुली [विशाल] दंष्ट्रा में (अपीपदाम) = प्राप्त कराते हैं, अर्थात् ज्ञान की वाणियों का उच्चारण करते हुए प्रभु के सान्निध्य में उस शत्रु को समाप्त कर देते हैं।

    भावार्थ -

    आत्मनिरीक्षण द्वारा हम अन्त:स्थ शत्रुओं को खोज-खोजकर ज्ञान की वाणियों के द्वारा प्रभु की समीपता में समाप्त करनेवाले बनें।

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