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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 5/ मन्त्र 44
    सूक्त - सिन्धुद्वीपः देवता - प्रजापतिः छन्दः - त्रिपदा गायत्रीगर्भानुष्टुप् सूक्तम् - विजय प्राप्ति सूक्त

    राज्ञो॒ वरु॑णस्य ब॒न्धोसि॑। सो॒मुमा॑मुष्याय॒णम॒मुष्याः॑ पु॒त्रमन्ने॑ प्रा॒णे ब॑धान ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    राज्ञ॑: । वरु॑णस्य । ब॒न्ध: । अ॒सि॒ । स: । अ॒मुम् । आ॒मु॒ष्या॒य॒णम् । अ॒मुष्या॑: । पु॒त्रम् । अन्ने॑ । प्रा॒णे । ब॒धा॒न॒ ॥५.४४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    राज्ञो वरुणस्य बन्धोसि। सोमुमामुष्यायणममुष्याः पुत्रमन्ने प्राणे बधान ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    राज्ञ: । वरुणस्य । बन्ध: । असि । स: । अमुम् । आमुष्यायणम् । अमुष्या: । पुत्रम् । अन्ने । प्राणे । बधान ॥५.४४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 5; मन्त्र » 44

    पदार्थ -

    १. (राज्ञः) = संसार के शासक व दीस (वरुणस्य) = पापों का निवारण करनेवाले प्रभु को तु (बन्धः असि) = अपने हृदयदेश में बाँधनेवाला है। तू प्रभु को हृदय में 'राजा वरुण' के रूप में स्मरण करता है, इसप्रकार स्मरण करता हुआ तू ऐसा ही बनता है। २. (स:) = वह तू (अमुम्) = उस अपने को (आमुष्यायणम्) = अमुक पिता के व (अमुष्याः पुत्रम्) = अमुक माता के पुत्र को (अन्ने प्राणे) = बधान अन्न व प्राण में बाँधनेवाला हो। तू अन्नों-वानस्पतिक भोजनों का ही सेवन करनेवाला बन तथा इन अन्नों को भी प्राणधारण के उद्देश्य से ही खा-अन्न का भी उतना ही सेवन कर जितना की प्राणधारण के लिए पर्यास हो।

    भावार्थ -

    हम हृदय में उस दीम, पाप-निवारक प्रभु को स्थापित करने का प्रयत्न करें। अपने माता-पिता का स्मरण करते हुए, उनके नाम को कलङ्कित न होने देने के लिए प्राणशक्ति रक्षण के हेतु वानस्पतिक भोजनों का सेवन करें।

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