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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 5/ मन्त्र 23
    सूक्त - सिन्धुद्वीपः देवता - आपः, चन्द्रमाः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - विजय प्राप्ति सूक्त

    स॑मु॒द्रं वः॒ प्र हि॑णोमि॒ स्वां योनि॒मपी॑तन। अरि॑ष्टाः॒ सर्व॑हायसो॒ मा च॑ नः॒ किं च॒नाम॑मत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒मु॒द्रम् । व॒: । प्र । हि॒णो॒मि॒ । स्वाम् । योनि॑म् । अपि॑ । इ॒त॒न॒ । अरि॑ष्टा: । सर्व॑ऽहायस: । मा । च॒ । न॒: । किम् । च॒न । आ॒म॒म॒त् ॥५.२३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समुद्रं वः प्र हिणोमि स्वां योनिमपीतन। अरिष्टाः सर्वहायसो मा च नः किं चनाममत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    समुद्रम् । व: । प्र । हिणोमि । स्वाम् । योनिम् । अपि । इतन । अरिष्टा: । सर्वऽहायस: । मा । च । न: । किम् । चन । आममत् ॥५.२३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 5; मन्त्र » 23

    पदार्थ -

    १. हे रेत:कणो! [आपः] मैं (वः) = तुम्हें (समुद्रम्) = [स मुद्] सर्वदा आनन्दमय उस प्रभु की ओर (प्रहिणोमि) = भेजता हूँ। तुम्हारे रक्षण के द्वारा ही तो मुझे प्रभु को पाना है। तुम (स्वां योनिम् अपि इतन)= अपने उत्पत्तिस्थान इस शरीर की ओर ही गतिवाले होओ। तुम शरीररूप घर में ही सुरक्षित रहो। २. तुम्हारे रक्षण के द्वारा हम (अरिष्टा:) = अहिंसित हों-रोगों से आक्रान्त न हों। (सर्वहायसः) = पूर्ण वर्षावाले व शतवर्षपर्यन्त जीवनवाले हों। (च) = तथा (न:) = हमें (किञ्चन) = कुछ भी (मा आममत्) = पीड़ित करनेवाला न हो-हम किसी रोग के शिकार न हों।

    भावार्थ -

    वीर्यरक्षण द्वारा हम रोगों से अहिंसित-शतवर्षपर्यन्त जीवनवाले हों तथा इनका रक्षण हमें अन्तत: प्रभु को प्राप्त करानेवाला हो।

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