अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 23
ऋषिः - सिन्धुद्वीपः
देवता - आपः, चन्द्रमाः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - विजय प्राप्ति सूक्त
41
स॑मु॒द्रं वः॒ प्र हि॑णोमि॒ स्वां योनि॒मपी॑तन। अरि॑ष्टाः॒ सर्व॑हायसो॒ मा च॑ नः॒ किं च॒नाम॑मत् ॥
स्वर सहित पद पाठस॒मु॒द्रम् । व॒: । प्र । हि॒णो॒मि॒ । स्वाम् । योनि॑म् । अपि॑ । इ॒त॒न॒ । अरि॑ष्टा: । सर्व॑ऽहायस: । मा । च॒ । न॒: । किम् । च॒न । आ॒म॒म॒त् ॥५.२३॥
स्वर रहित मन्त्र
समुद्रं वः प्र हिणोमि स्वां योनिमपीतन। अरिष्टाः सर्वहायसो मा च नः किं चनाममत् ॥
स्वर रहित पद पाठसमुद्रम् । व: । प्र । हिणोमि । स्वाम् । योनिम् । अपि । इतन । अरिष्टा: । सर्वऽहायस: । मा । च । न: । किम् । चन । आममत् ॥५.२३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
विद्वानों के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
[हे विद्वानो !] (वः) तुम्हें (समुद्रम्) प्राणियों के यथावत् उदय करनेहारे [परमात्मा] की ओर (प्र हिणोमि) मैं आगे बढ़ाता हूँ, (अरिष्टाः) बिना हारे हुए (सर्वहायसः) सब ओर गतिवाले तुम (स्वाम्) अपने (योनिम्) कारण को (अपि) ही (इतन) प्राप्त हो, (च) और (नः) हमें (किम् चन) कोई भी [दुःख] (मा आममत्) न पीड़ा देवे ॥२३॥
भावार्थ
मनुष्य सब के आदि कारण जगदीश्वर की यथावत् भक्ति करके सब दुःखों से छूटें ॥२३॥ इस मन्त्र का पिछला पाद आ चुका है-अ० ६।५७।३ ॥
टिप्पणी
२३−(समुद्रम्) अ० १।१३।३। सम्+उत्+द्रु गतौ−ड प्रत्ययः, यद्वा, सम्+मुद हर्षे-रक्, यद्वा, सम्+उन्दी क्लेदने-रक्। समुद्रः कस्मात्समुद्द्रवन्त्यस्मादापः, समभिद्रवन्त्येनमापः, सम्मोदन्तेऽस्मिन् भूतानि समुदको भवति, समुनत्तीति वा-निरु० २।१०। समुद्र आदित्यः, समुद्र आत्मा-निरु० १४।१६। समुद्रः समुद्द्रवन्ति भूतानि यस्मात्सः-दयानन्दभाष्ये, यजु० ५।३३। सर्वे देवाः सम्यगुत्कर्षेण द्रवन्ति यत्रेति समुद्रः−महीधरभाष्ये, यजु० ५।३३। भूतानां समुदयकारणं परमात्मानम् (वः) युष्मान् (प्र) अग्रे (हिणोमि) हि गतिवृद्ध्योः-अन्तर्गतणिच्। हाययामि। गमयामि (स्वाम्) आत्मीयाम् (योनिम्) कारणम् (अपि) एव (इतन) लोटि तनादेशः। इत। प्राप्नुत (अरिष्टाः) अहिंसिताः (सर्वहायसः) अ० ८।२।७। सर्व+ओहाङ् गतौ-असुन्, युक्। सर्वगतयः (च) (नः) अस्मान् (किं चन) किमपि दुःखम् (मा आममत्) अ० ६।५७।३। अम पीडने लुङि चङि रूपम्। न पीडयेत् ॥
विषय
अरिष्टा: सर्वहायसः
पदार्थ
१. हे रेत:कणो! [आपः] मैं (वः) = तुम्हें (समुद्रम्) = [स मुद्] सर्वदा आनन्दमय उस प्रभु की ओर (प्रहिणोमि) = भेजता हूँ। तुम्हारे रक्षण के द्वारा ही तो मुझे प्रभु को पाना है। तुम (स्वां योनिम् अपि इतन)= अपने उत्पत्तिस्थान इस शरीर की ओर ही गतिवाले होओ। तुम शरीररूप घर में ही सुरक्षित रहो। २. तुम्हारे रक्षण के द्वारा हम (अरिष्टा:) = अहिंसित हों-रोगों से आक्रान्त न हों। (सर्वहायसः) = पूर्ण वर्षावाले व शतवर्षपर्यन्त जीवनवाले हों। (च) = तथा (न:) = हमें (किञ्चन) = कुछ भी (मा आममत्) = पीड़ित करनेवाला न हो-हम किसी रोग के शिकार न हों।
भावार्थ
वीर्यरक्षण द्वारा हम रोगों से अहिंसित-शतवर्षपर्यन्त जीवनवाले हों तथा इनका रक्षण हमें अन्तत: प्रभु को प्राप्त करानेवाला हो।
भाषार्थ
हे आपः (वः) तुम्हें मैं (समुद्रम्) हृदय-समुद्र की ओर (प्रहिणोमि) प्रेरित करता हुं, (स्वाम्) निज (योनिम्) गृह में (अपीतन) विलीन हो जाओ, (सर्वहायसः) सब प्रकार से गतियों वाले सप्तप्राण (अनिष्टाः) हिंसित न हों, (च) और (नः) हमें (कि चन) कोई भी [रोग] (मा) न (आममत्) रुग्ण करे।
टिप्पणी
[त्रैहायण-अनृतभाषण त्याग के मन्त्र (२२) के पश्चात् मन्त्र (२३) पठित है। इन दोनो मन्त्रों के भावों में कार्यकारण भाव है। त्रैहायणव्रत कारण है और मन्त्र में कथित भावनाएं कार्यरूप है। मन्त्र (२३) में "आपः" द्वारा ५ ज्ञानेन्द्रियां, मन और विद्या ये सात प्राण अभिप्रेत हैं। "सप्तापः स्वपतो लोकमीयुः" (यजु० ३४/५५) में "सप्त-आपः" की व्याख्या में निरुक्त में कहा है कि "षडिन्द्रियाणि विद्या सप्तमी” (१२/४/३७)। इन सात प्राणों को "योगाभ्यास" से हृदय में विलीन करना होता है। यथा “हृदीन्द्रियाणि मनसा संनिरुध्य। ब्रह्मोडुपेन प्रतरेत विद्वान् स्रोतांसि सर्वाणि भयावहानि” (श्वेताश्व० उप० अध्याय २, खण्ड ८) अर्थात् "मन सहित इन्द्रियों को हृदय में रोक कर, ब्रह्मरुपी नौका द्वारा, विद्वान्, भयप्रद सव स्रोतों को तैर जाय। ये स्रोत हैं विषयप्रवाही इन्द्रियां और मन। ये सात प्राण “सर्वहायसः” हैं, शारीरिक तथा मानसिक सब प्रकार की गतियों के कारण हैं। इन की गतियों के निरोध से मनुष्य हिंसित नहीं होते, और न रोगग्रस्त होते हैं। प्रहिणोमि= प्र + हि गतौ (स्वादिः)। योनिः गृहनाम (निघं० ३/४)। सर्वहायसः=सर्व+हा (ओहाङ् गतौ)+ युगागम+असुन्। सर्वहाराः=सर्वातिः (सायण, अथर्व० ८/२/७)। आममत्=अम रोगे (चुरादिः)]।
इंग्लिश (4)
Subject
The Song of Victory
Meaning
O sages, O mind and senses, O karmas of this life of existence, I impel and inspire you to move with all your vigour, unhurt, unscathed, to your own original divine source, the Infinite sea. Let there be no pain, no suffering to hurt us.
Translation
I urge you forth to the-ocean. Go to your own abode. (May we remain) unharmed throughout our life-span. May nothing whatsoever cause us to bow down.
Translation
O learned men! I point out to you Samudra, All-blissful God. You attain your great refuge and you remain uninjured and with all strength secured. Let not anything make us unwholesome.
Translation
O learned persons just as ocean is the final resort of waters and they all flow into it, so I urge you all on towards God, the Treasure of virtues like ocean of gems. Enter your own Most Efficient Cause. Free from violence may we enjoy the full span of life for a hundred years. Let nothing produce disease in us.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२३−(समुद्रम्) अ० १।१३।३। सम्+उत्+द्रु गतौ−ड प्रत्ययः, यद्वा, सम्+मुद हर्षे-रक्, यद्वा, सम्+उन्दी क्लेदने-रक्। समुद्रः कस्मात्समुद्द्रवन्त्यस्मादापः, समभिद्रवन्त्येनमापः, सम्मोदन्तेऽस्मिन् भूतानि समुदको भवति, समुनत्तीति वा-निरु० २।१०। समुद्र आदित्यः, समुद्र आत्मा-निरु० १४।१६। समुद्रः समुद्द्रवन्ति भूतानि यस्मात्सः-दयानन्दभाष्ये, यजु० ५।३३। सर्वे देवाः सम्यगुत्कर्षेण द्रवन्ति यत्रेति समुद्रः−महीधरभाष्ये, यजु० ५।३३। भूतानां समुदयकारणं परमात्मानम् (वः) युष्मान् (प्र) अग्रे (हिणोमि) हि गतिवृद्ध्योः-अन्तर्गतणिच्। हाययामि। गमयामि (स्वाम्) आत्मीयाम् (योनिम्) कारणम् (अपि) एव (इतन) लोटि तनादेशः। इत। प्राप्नुत (अरिष्टाः) अहिंसिताः (सर्वहायसः) अ० ८।२।७। सर्व+ओहाङ् गतौ-असुन्, युक्। सर्वगतयः (च) (नः) अस्मान् (किं चन) किमपि दुःखम् (मा आममत्) अ० ६।५७।३। अम पीडने लुङि चङि रूपम्। न पीडयेत् ॥
हिंगलिश (1)
Subject
सामाजिक दायित्व निर्वाह Socially responsible behavior
Word Meaning
(आप:) हे आप्त- अपवादहीन,अभ्यस्त, तर्क संगत, बुद्धिमान ,सत्याधारित प्रजा जनो, अपने में ही मस्त न हों | अपने स्वार्थ में हम किसी भी प्रकार का समाज, पर्यावरण का अहित न करें और इस प्रकार सब जन स्वस्थ निरोगी हों |
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