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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 2
    ऋषिः - सिन्धुद्वीपः देवता - आपः, चन्द्रमाः छन्दः - त्रिपदा पुरोऽभिकृतिः ककुम्मतीगर्भापङ्क्तिः सूक्तम् - विजय प्राप्ति सूक्त
    63

    इन्द्र॒स्यौज॒ स्थेन्द्र॑स्य॒ सह॒ स्थेन्द्र॑स्य॒ बलं॒ स्थेन्द्र॑स्य वी॒र्यं स्थेन्द्र॑स्य नृ॒म्णं स्थ॑। जि॒ष्णवे॒ योगा॑य क्षत्रयो॒गैर्वो॑ युनज्मि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑स्य । ओज॑: । स्थ॒ । इन्द्र॑स्य । सह॑: । स्थ॒ । इन्द्र॑स्य । बल॑म् । स्थ॒ । इन्द्र॑स्य । वी॒र्य᳡म् । स्थ॒ । इन्द्र॑स्य । नृ॒म्णम् । स्थ॒ । जि॒ष्णवे॑ । योगा॑य । क्ष॒त्र॒ऽयो॒गै: । व॒: । यु॒न॒ज्मि॒ । ॥५.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रस्यौज स्थेन्द्रस्य सह स्थेन्द्रस्य बलं स्थेन्द्रस्य वीर्यं स्थेन्द्रस्य नृम्णं स्थ। जिष्णवे योगाय क्षत्रयोगैर्वो युनज्मि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रस्य । ओज: । स्थ । इन्द्रस्य । सह: । स्थ । इन्द्रस्य । बलम् । स्थ । इन्द्रस्य । वीर्यम् । स्थ । इन्द्रस्य । नृम्णम् । स्थ । जिष्णवे । योगाय । क्षत्रऽयोगै: । व: । युनज्मि । ॥५.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    विद्वानों के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे विद्वानो !] तुम (इन्द्रस्य) आत्मा के (ओजः) पराक्रम... म० १। (जिष्णवे) विजयी (योगाय) संयोग के लिये (क्षत्रयोगैः) राज्य के ध्यानों से (वः) तुमको (युनज्मि) मैं जोड़ता हूँ ॥२॥

    भावार्थ

    मन्त्र १ के समान है ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(क्षत्रयोगैः) राज्यध्यानैः। अन्यत् पूर्ववत्−म० १ ॥

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    विषय

    'ओजस, सहस, बल, वीर्य, नृम्ण

    पदार्थ

    १. हे जलो! (इन्द्रस्य ओजः स्थ) = तुम जितेन्द्रिय पुरुष के ओज हो [ओजस् ability], उसे सब कर्त्तव्यकर्मों को कर सकने के योग्य बनाते हो। (इन्द्रस्य सहः स्थ) = तुम जितेन्द्रिय पुरुष की वह शक्ति हो, जिससे कि यह काम, क्रोध आदि शत्रुओं का धर्षण कर पाता है। (इन्द्रस्य बल स्थ) = जितेन्द्रिय पुरुष का तुम्हीं मनोबल हो-इन 'आप:' रेत:कणरूप जलों का रक्षण करनेवाला कभी दुर्बल मानस स्थिति में नहीं होता। (इन्द्रस्य वीर्य स्थ) = तुम जितेन्द्रिय पुरुष की उत्पादन [virility, genertive power] व रोगनिवारक शक्ति हो। (इन्द्रस्य नृम्ण स्थ) = तुम जितेन्द्रिय पुरुष का उत्साह व धन [courage, wealth] हो। २. इन रेत:कणों के रक्षण से 'ओजस्, सहस्, बल, वीर्य व नृम्ण' की प्राप्ति होती है, अत: (जिष्णवे योगाय) = रोगों व वासनारूप शत्रुओं के विजयेच्छु [जिष्णु] उपाय[योग] के लिए मैं (व:) = आपको [रेत:कणों को] (ब्रह्मयोगै:) = ज्ञानप्रासि में लगे रहनेरूप उपायों से (युनज्मि) = शरीर में ही युक्त करता हूँ। इसी प्रकार (क्षत्रयोगैः) = बलों का अपने साथ सम्पर्क करने की कामनारूप उपायों से इन्हें मैं शरीर में युक्त करनेवाला बनता हूँ। (इन्द्रयोगैः) = परमैश्वर्यवाला बनने की कामनारूप उपायों से मैं इन्हें अपने में जोड़ता हूँ। (सोमयोगै:) = सौम्य भोजनों का ही प्रयोग करने के द्वारा में इन्हें शरीर में जोड़ता हूँ तथा अन्ततः (अप्सु योगै:) = निरन्तर कर्मों में लगे रहने के द्वारा मैं इन्हें शरीर में ही सुरक्षित करता हूँ। ३. जब मैं शत्रुओं को जीतने के उपाय के रूप में इन रेत:कणों को शरीर में सुरक्षित करता हूँ, तब (विश्वानि भूतानि) = शरीर का निर्माण करनेवाले 'पृथिवी, जल, तेज, वायु व आकाश' रूप सब भूत (मा उपतिष्ठन्तु) = मेरे समीप सहायक रूप में उपस्थित हों। इन सब भूतों की अनुकूलता मुझे प्राप्त हो। हे (आपः) = रेतःकणरूप जलो! आप (मे युक्ताः स्थ) = मेरे साथ युक्त रहो। आपकी संयुक्ति ही तो मेरी विजय का कारण बनती है।

    भावार्थ

    रेत:कणों के रक्षण से 'ओजस्, सहस, बल, वीर्य व नृम्ण' प्राप्त होता है। इन रेत:कणों के रक्षण के लिए आवश्यक है कि हम ज्ञानप्राप्ति में लगे रहें-बल व ऐश्वर्य के सम्पादन को अपना लक्ष्य बनाएँ। सौम्य भोजनों का सेवन करें। कर्मों में लगे रहें। इसप्रकार रेत:कणों के रक्षण से सब भूतों की अनुकूलता प्राप्त होगी।

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    भाषार्थ

    (इन्द्रस्य ...) पूर्ववत् (मन्त्र १)(जिष्णवे) विजय सम्बन्धी (योगाय) पारस्परिक सहयोग के लिये (वः) हे प्रजाओं ! तुम्हें (क्षत्रयोगैः) क्षतों-से-त्राण करने वाले-क्षात्रबल अर्थात् सेना के सहयोगों के साथ (युनज्मि) मैं युक्त करता हूं, सम्बद्ध करता हूं।

    टिप्पणी

    [नागरिक सुखीजीवन के लिये, और नागरिक कष्टों पर विजय के लिये, प्रजा के साथ, ब्राह्मणों का सहयोग चाहिये, और शत्रुराष्ट्र द्वारा या अन्तरीय-कलह द्वारा सम्भाव्य क्षत-विक्षतों पर विजय पाने के लिये, क्षात्रबल का सहयोग प्रजा के साथ चाहिये। क्षत्र = क्षत् +त्र ( त्रैङ् पालने, भ्वादिः)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Song of Victory

    Meaning

    You are the honour and splendour of the human order and the Samrat, supreme ruler. You are the power and patience of the nation, you are the strength and force of the samrat, you are the vigour and valour of the ruler, you are the real manly wealth of the order. I commit you to the achievement of united victory with dedication to discipline, defence and honour of the order and cooperation of the forces of law and order.

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    Translation

    (O water), you are the vigour of the resplendent Lord, the conquering force of the resplendent Lord, the strength of the resplendent Lord; the valour of the resplendent Lord, the manliness of the resplendent Lord; for the enterprize of the conquest, I equip you with the means of ruling power (Ksatra-yogaih-nrmņam)

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    Translation

    O ye people! you are the strength of the King, you are the force of the king, you are the power of the King, you are the Vigor of the King and you are the weal the of the King, I, the priest unite you with the adventures of Defence and nance for the victorious enterprise.

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    Translation

    O subjects, ye are the power of the King, ye the force and strength of the King, ye his manliness and wealth. I join you through royal power with the victorious King!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(क्षत्रयोगैः) राज्यध्यानैः। अन्यत् पूर्ववत्−म० १ ॥

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    हिंगलिश (1)

    Subject

    क्षात्र बल

    Word Meaning

    क्षत्रयोगैर्वो ( इन्द्रस्यौज स्थेन्द्रस्य सह स्थेन्द्रस्य बलं स्थेन्द्रस्य वीर्यं स्थेन्द्रस्य नृम्णं स्थ) ओजस्वी राजा, और परिवारके मुखिया, समाज के नेता सब जनों के बल, वीर्य और आर्थिक शक्ति शक्ति सम्पन्न होने के मार्ग दर्शन के लिए (क्षत्रयोगैर्वो) – क्षात्र बल - नागरिक सुखी जीवन के लिए नागरिक कष्टों पर विजय पाने के लिए प्रजा के साथ सहयोग की वृत्ति और शत्रु राष्ट्रों द्वारा अन्तरीय कलह, और बाह्य सम्भावित क्षत विक्षतों पर (जिष्णवे योगाय युनज्मि) जितेंद्रिय हो कर संसार में विजय प्राप्ति के उद्देश्य से जोड़ता हूं

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