अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 17
ऋषिः - सिन्धुद्वीपः
देवता - आपः, चन्द्रमाः
छन्दः - चतुरवसाना दशपदा त्रैष्टुभगर्भातिधृतिः
सूक्तम् - विजय प्राप्ति सूक्त
36
यो व॑ आपो॒ऽपां व॒त्सोऽप्स्व॒न्तर्य॑जु॒ष्यो देव॒यज॑नः। इ॒दं तमति॑ सृजामि॒ तं माभ्यव॑निक्षि। तेन॒ तम॒भ्यति॑सृजामो॒ यो॒स्मान्द्वेष्टि॒ यं व॒यं द्वि॒ष्मः। तं व॑धेयं॒ तं स्तृ॑षीया॒नेन॒ ब्रह्म॑णा॒नेन॒ कर्म॑णा॒नया॑ मे॒न्या ॥
स्वर सहित पद पाठय: । व॒ : । आ॒प॒: । अ॒पाम् । व॒त्स: । अ॒प्ऽसु । अ॒न्त: । य॒जु॒ष्य᳡: । दे॒व॒ऽयज॑न: । इ॒दम् । तम् । अति॑ । सृ॒जा॒मि॒ । तम् । मा । अ॒भि॒ऽअव॑निक्षि । तेन॑ । तम् । अ॒भि॒ऽअति॑सृजाम: । य: । अ॒स्मान् । द्वेष्टि॑ । यम् । व॒यम् । द्वि॒ष्म: । तम् । व॒धे॒य॒म् । तम् । स्तृ॒षी॒य॒ । अ॒नेन॑ । ब्रह्म॑णा । अ॒नेन॑ । कर्म॑णा । अ॒नया॑ । मे॒न्या ॥५.१७॥
स्वर रहित मन्त्र
यो व आपोऽपां वत्सोऽप्स्वन्तर्यजुष्यो देवयजनः। इदं तमति सृजामि तं माभ्यवनिक्षि। तेन तमभ्यतिसृजामो योस्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः। तं वधेयं तं स्तृषीयानेन ब्रह्मणानेन कर्मणानया मेन्या ॥
स्वर रहित पद पाठय: । व : । आप: । अपाम् । वत्स: । अप्ऽसु । अन्त: । यजुष्य: । देवऽयजन: । इदम् । तम् । अति । सृजामि । तम् । मा । अभिऽअवनिक्षि । तेन । तम् । अभिऽअतिसृजाम: । य: । अस्मान् । द्वेष्टि । यम् । वयम् । द्विष्म: । तम् । वधेयम् । तम् । स्तृषीय । अनेन । ब्रह्मणा । अनेन । कर्मणा । अनया । मेन्या ॥५.१७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
विद्वानों के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(आपः) हे विद्वानो ! (यः) जो (वः अपाम्) तुम विद्वानों का (वत्सः) निवास (अप्सु अन्तः) विद्वानों के बीच.... मन्त्र १५ ॥१७॥
भावार्थ
मन्त्र १५ के समान है ॥१७॥
टिप्पणी
१७−(वत्सः) वृतॄवदिवचिवसि०। उ० ३।६२। वस निवासे-स प्रत्ययः। निवासः। अन्यत् पूर्ववत्−म० १५ ॥
विषय
रेतःकणों का महत्त्व
पदार्थ
१. हे (आप:) = रेत:कणो! (य:) = जो (व:) = आपका (अपाम्) = प्रजाओं का (भाग:) = पूजन [भज सेवायाम्] है, अर्थात् आपके रक्षण से प्रजाओं के अन्दर जो प्रभु-पूजन का भाव उत्पन्न होता है, इसी प्रकार जो (अपाम् ऊर्मि:) = प्रजाओं का प्रकाश है [उर्मि light], आपके रक्षण से जो प्रकाश उत्पन्न होता है। जो (अपां वत्स:) = [वदति] प्रजाओं का ज्ञान की बाणियों का उच्चारण है। (अपां वृषभ:) = प्रजाओं में सुखों का सेचन है [वृष् सेचने]। (अपां हिरण्यगर्भः) = प्रजाओं में ज्योति को धारण करना है। (अपां अश्मा) = प्रजाओं का पाषाण-तुल्य दृढ़-शरीर है, (पृश्नि:) = अंग प्रत्यंग में रसों का संस्पर्श है [संस्प्रष्टा रसान्-नि०२।१४] तथा (दिव्यः) = देववृत्तियों का जन्म है और अन्तत: (अपां अग्नयः) = प्रजाओं के अन्दर आगे बढ़ने की वृत्तियाँ हैं। ये सब (अप्सु अन्त:) = प्रजाओं के अन्दर (यजुष्य:) = यजुष्य हैं-यज्ञात्मकवृत्तियों को जन्म देने के लिए उत्तम है। ये सब बातें (देवयजन:) = उस देव के साथ-प्रभु के साथ मेल करानेवाली हैं। २. (अतः इदम्) [इदानीम्] = अब मैं (तम् उ) = उस रेत:कण [वीर्यशक्ति] को ही (अतिसजामि) = अतिशयेन अपने अन्दर उत्पन्न करता हूँ। (तं मा अभिअवनिक्षि) = उसका मैं सफाया न कर दूं-उसे अपने अन्दर सुरक्षित काँ[अवनिज् wipe off] (तेन) = उस वीर्यशक्ति के द्वारा (तम् अभि अतिसूजामः) = उसे अपने से दूर करते हैं [अतिसृज् part with] (यः) = जो (अस्मान् द्वेष्टि) = हम सबके प्रति अप्रीतिवाला है और (परिणामत: यं वयं द्विष्मः) = जिससे हम भी प्रीति नहीं कर सकते। (तम्) = उसे (अनेन बह्मणा) = इस ज्ञान के द्वारा (अनेन कर्मणा) = इस यज्ञादि कर्म के द्वारा तथा (अनया मेन्या) = इस उपासनारूप वज्र के द्वारा [मेनि:-मन्] (तं वधेयम्) = उस समाज-विद्विष्ट को समाप्त कर (दंतं स्तृषीय) = उसे नष्ट कर दूं [स्तृ to kill]।
भावार्थ
रेत:कणों के रक्षण से हममें 'उपासना के भाव, प्रकाश, ज्ञान की वाणियों का उच्चारण, सुख, ज्योति, दृढ रसमय दिव्यता व प्रगतिशीलता' की उत्पत्ति होती है, अत: रेत:कणों का रक्षण आवश्यक है। इससे द्वेषभाव भी विनष्ट हो जाता है।
भाषार्थ
(आपः) हे आप्त प्रजाओ! (वः) तुम्हारा (यः) जो (अपाम्) प्रजाओं सम्बन्धी (वत्सः) पुत्ररूप है, पुत्रसदृश स्नेहपात्र है, जोकि तुम्हारे (अप्सु अन्तः) ह्रदयान्तर्वर्ती जलों में विद्यमान है, (यज्ञुष्यः) यजनीय तथा (देवयजनः) देवों अथति् साध्यो और ऋषियों द्वारा यजनीय है, (तम्) उस के प्रति (इदम्) इस शरीर या मन को (अतिसृजामि) मैं सम्राट भेंट करता हूं, समर्पित करता हूं, [हे परमेश्वर!] (तम, मा) उस मुझ को, (अभि) अभिमुख होकर, (अवनिक्षि) शुचि, पवित्र कर। (तेन) उस शुचि, पवित्र सम्राट् की आज्ञा द्वारा (तम्) उस शत्रु-राजा को, (अभि) अभिमुख हो कर, (अतिसृजामः) हम सैनिक विनष्ट करते हैं, (यः) जोकि (अस्मात् द्वेष्टि) हमारे साथ द्वेष करता है, और (यम्) जिस के साथ प्रतिक्रिया में (वयम्, द्विष्मः) हम द्वेष करते हैं। अथवा (तम्) उस शत्रु-राजा का (वधेयम) मैं सम्राट् स्वयं वध करू (तम्) उस का (स्तृषीय) विनाश करूं (अनेन व्रह्मणा) इस मन्त्रोक्त विधि द्वारा, (अनेन कर्मणा) इस [द्वन्द्वयुद्धरूपी] कर्म द्वारा या (अनया मेन्या) इस वज्र द्वारा।
टिप्पणी
[मन्त्र में परमेश्वर को वत्स कहा है। अथर्ववेद में परमेश्वर को “ऋषीणां पुत्रः” कहा है। यथा “अग्नावग्निश्वरति प्रविष्ट ऋषीणां पुत्रो अभिशस्तिपा उ” (अथर्व० ४।३९।६), अर्थात् अग्नि में प्रविष्ट हुआ अग्नि विचरता है, वह ऋषियों का पुत्र है, और हिंसा करने वाले पाप से रक्षा करते है। परमेश्वर ऋषियों का पुत्र है, ऋषि लोग योगसमाधि द्वारा इसे पैदा करते है, प्रकट करते हैं, तथा इस से पुत्रवत् स्नेह करते हैं, जैसे माता-पिता उत्पन्न पुत्र से स्नेह करते हैं]।
इंग्लिश (4)
Subject
The Song of Victory
Meaning
O people of the state, whoever is the dearest favourite of the people, loved by society and respected by the wise in the business of governance and administration of the order, here I appoint, and entrust the department to him. Do not forsake him, nor would I neglect him, and thereby we take on whoever hates us and whoever we disapprove, and with this knowledge, through this process of law, and with this act of justice, we counter, cover and eliminate that element of hate and enmity.
Translation
What of you, O waters is the young dear child (vatsa) of the waters within the waters, useful for the sacrificial (yajusya) and useful for the congregation of enligtened beings (gods or devas), that I present here. May I not dismiss or ignore him outright. That let me not wash down against myself. That we do not let go against him who hates us, or whom we hate; him may I slay, or stab; him may I bestrew (strsiya), with this prayer (brahmaņā) with this act (karmaņā), with this weapon (menyā).
Translation
O learned men! to him who is the firm, holder of your virtues and actions among the people and is performer of yajna and server of enlightened persons, I, the priest entrust this Kingdom. Let not you dishonor him. By him we attack on him who hates us, and whom we abhor. We overthrow and slay him through this Knowledge, through this act and through this fatal weapon.
Translation
O learned persons, the King, who grants habitation to Ye subjects, living amongst you, is worthy of reverence and worship by godly persons. I hand over the administration of this State to him. May I never show him disrespect. With his help we invade the enemy who hates us and whom we abhor. Him would I fain overthrow and slay with this Vedic knowledge, with this heroic deed, and with this army!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१७−(वत्सः) वृतॄवदिवचिवसि०। उ० ३।६२। वस निवासे-स प्रत्ययः। निवासः। अन्यत् पूर्ववत्−म० १५ ॥
हिंगलिश (1)
Subject
वत्स: - All young ones human and animals & Children, students in society.
Word Meaning
हे आप्त- प्रजा जनो जो अपवादहीन,अभ्यस्त, तर्क संगत, बुद्धिमान ,सत्याधारित जो ऋषियों द्वारा निर्देषित यज्ञादि कार्य करने की तुम्हारे हृदय में संचार करने वाले तत्वों से प्रेरणा द्वारा समाज के भविष्य ब्रह्मचारी बालक,शिक्षार्थी, युवा वर्ग, गौओं इत्यादि की संतान सब के निर्माण के प्रति तुम्हारे शरीर और मन सब साधनों को समर्पित करता हूं | सद्बुद्धि तुम्हारे आचरण को पवित्र करे | उस पवित्र आचरण से अपने आंतरिक शत्रुओं पर विजयी हो कर जो हम से द्वेष करते हैं और हम जिन से द्वेष करते हैं उन पर विजय पाएं | इस वेद ज्ञान पर आधारित कर्मकाण्ड के वज्र द्वारा उन शत्रुओं का वध करें उन का विनाश करें |
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