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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 45
    ऋषिः - सिन्धुद्वीपः देवता - प्रजापतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - विजय प्राप्ति सूक्त
    45

    यत्ते॒ अन्नं॑ भुवस्पत आक्षि॒यति॑ पृथि॒वीमनु॑। तस्य॑ न॒स्त्वं भु॑वस्पते सं॒प्रय॑च्छ प्रजापते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । ते॒ । अन्न॑म् । भु॒व॒: । प॒ते॒ । आ॒ऽक्षि॒यति॑ । पृ॒थि॒वीम् । अनु॑ । तस्य॑ । न॒: । त्वम् । भु॒व॒: । प॒ते॒ । स॒म्ऽप्रय॑च्छ । प्र॒जा॒ऽप॒ते॒ ॥५.४५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्ते अन्नं भुवस्पत आक्षियति पृथिवीमनु। तस्य नस्त्वं भुवस्पते संप्रयच्छ प्रजापते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । ते । अन्नम् । भुव: । पते । आऽक्षियति । पृथिवीम् । अनु । तस्य । न: । त्वम् । भुव: । पते । सम्ऽप्रयच्छ । प्रजाऽपते ॥५.४५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 5; मन्त्र » 45
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    शत्रुओं के नाश का उपदेश।

    पदार्थ

    (भुवः पते) हे भूपति [राजन् !] (यत्) जो (ते) तेरा (अन्नम्) अन्न (पृथिवीम् अनु) पृथिवी पर (आक्षियति) रहा करता है। (भुवः पते) हे भूपति ! (प्रजापते) हे प्रजापति [राजन् !] (त्वम्) तू (नः) हमें (तस्य) उस [अन्न] का (संप्रयच्छ) दान करता रहे ॥४५॥

    भावार्थ

    राजा अपने सुप्रबन्ध से अन्न आदि पदार्थों को खेत और भाण्डागार में सुरक्षित रखकर प्रजापालन करे ॥४५॥

    टिप्पणी

    ४५−(यत्) (ते) तव (अन्नम्) भोज्यं वस्तु (भुवः) भूमेः (पते) स्वामिन् (आ क्षियति) समन्ताद् निवसति। वर्तते (पृथिवीम्) (अनु) प्रति (तस्य) अन्नस्य (नः) अस्मभ्यम् (भुवः पते) (संप्रयच्छ) सम्यग् दानं कुरु (प्रजापते) हे प्रजापालक ॥

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    विषय

    अन्न का ही सेवन

    पदार्थ

    १. हे (भुवस्पते) = इस पृथिवी के स्वामिन प्रभो! (यत् ते अन्नम्) = जो आपका यह अन्न (प्रथिवीं अनु आक्षियति) = पृथिवी पर चारों ओर निवास करता है, अर्थात् इस पृथिवी से उत्पन्न होता है, हे (भुवस्पते) = पृथिवी के स्वामिन् ! (प्रजापते) = प्रजाओं के रक्षक प्रभो! (तस्य) = उस अन्न के अंश को (त्वं) = आप (नः संप्रयच्छ) = हमारे लिए दीजिए।

    भावार्थ

    हम प्रभुकृपा से इस पृथिवी से उत्पन्न होनेवाले अन्न को प्राप्त करें और उसके द्वारा प्राणों का धारण करें।

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    भाषार्थ

    (भुवस्पते) हे भूपति ! भूमि के पति ! (ते) तेरा (यत् अन्नम्) जो अन्न (पृथिवीम् मनु) पृथिवी में (आ क्षियति) सब ओर निवास करता है, (तस्य) उस का [यथोचित विभाग] (नः) हम प्रजाओं को (संप्रयच्छ) सम्यक्तया प्रदान कर, (भुवस्पते, प्रजापते) हे भूमि के पति ! हे प्रजाओं के पति !

    टिप्पणी

    [मन्त्र में सार्वभौमशासक के प्रति कथन हुआ है। यह सम्राट् भूमि या समग्र पृथिवी का शासक है। समग्र पृथिवी में जो अन्न पैदा होती है उस का स्वामी सार्वभौमशासक है, —यह वैदिक भावना प्रतीत होती है। यह शासक ही प्रजाजनों में "विभक्ता" के द्वारा (यजु० ३०।४) अन्न का यथोचित विभाग करता है।]

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    विषय

    विजिगीषु राजा के प्रति प्रजा के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे (भुवः पते) पृथिवी के स्वामी ! (यत्) जो (ते अन्नम्) तेरा अन्न (पृथिवीम् अनु या क्षियति) पृथिवी पर है, है (भुवस्पते प्रजापते) प्रजा के पालक ! पृथिवी के रक्षक ! राजन् ! (त्वं) तू (तस्य) उस अन्न को (नः) हमें (सं-प्रयच्छ) प्रदान कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-२४ सिन्धुद्वीप ऋषिः। २६-३६ कौशिक ऋषिः। ३७-४० ब्रह्मा ऋषिः। ४२-५० विहव्यः प्रजापतिर्देवता। १-१४, २२-२४ आपश्चन्द्रमाश्च देवताः। १५-२१ मन्त्रोक्ताः देवताः। २६-३६ विष्णुक्रमे प्रतिमन्त्रोक्ता वा देवताः। ३७-५० प्रतिमन्त्रोक्ताः देवताः। १-५ त्रिपदाः पुरोऽभिकृतयः ककुम्मतीगर्भा: पंक्तयः, ६ चतुष्पदा जगतीगर्भा जगती, ७-१०, १२, १३ त्र्यवसानाः पञ्चपदा विपरीतपादलक्ष्मा बृहत्यः, ११, १४ पथ्या बृहती, १५-१८, २१ चतुरवसाना दशपदा त्रैष्टुव् गर्भा अतिधृतयः, १९, २० कृती, २४ त्रिपदा विराड् गायत्री, २२, २३ अनुष्टुभौ, २६-३५ त्र्यवसानाः षट्पदा यथाक्ष शकर्योऽतिशक्वर्यश्च, ३६ पञ्चपदा अतिशाक्कर-अतिजागतगर्भा अष्टिः, ३७ विराट् पुरस्ताद् बृहती, ३८ पुरोष्णिक्, ३९, ४१ आर्षी गायत्र्यौ, ४० विराड् विषमा गायत्री, ४२, ४३, ४५-४८ अनुष्टुभः, ४४ त्रिपाद् गायत्री गर्भा अनुष्टुप्, ५० अनुष्टुप्। पञ्चशदर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Song of Victory

    Meaning

    O lord of the land, ruler and protector of the people, whatever laws of food and means of maintenance obtain in the land according to conditions of the earth for you and the people, O Prajapati, give us our share of that.

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    Translation

    O Lord of the midspace (bhuvaspate), whatever food there lies on the earth, O Lord of creatures (Prajāpate), O Lord of the midspace, may you grant that to us profusely.

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    Translation

    O master of the land! O master of the subject! O guard of the land! whatever corn is on the earth you give me.

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    Translation

    O King, the Lord of Earth, all food of thine that lies upon the face of earth, thereof bestow thou upon us, O Lord of Earth, O Lord of subjects!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४५−(यत्) (ते) तव (अन्नम्) भोज्यं वस्तु (भुवः) भूमेः (पते) स्वामिन् (आ क्षियति) समन्ताद् निवसति। वर्तते (पृथिवीम्) (अनु) प्रति (तस्य) अन्नस्य (नः) अस्मभ्यम् (भुवः पते) (संप्रयच्छ) सम्यग् दानं कुरु (प्रजापते) हे प्रजापालक ॥

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    हिंगलिश (1)

    Subject

    Duty of Land Owners

    Word Meaning

    भूमिपति यह जानें कि भूमि से जो भी अन्नादि उपलब्ध होता है, वह (उन के निजी भोग के लिए नहीं है) सब प्रजा के लिए है और उस का सम्यकता से सब प्रजा में विभाजन हो |

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