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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 11
    ऋषिः - सिन्धुद्वीपः देवता - आपः, चन्द्रमाः छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः सूक्तम् - विजय प्राप्ति सूक्त
    39

    मि॒त्रावरु॑णयोर्भा॒ग स्थ॑। अ॒पां शु॒क्रमा॑पो देवी॒र्वर्चो॑ अ॒स्मासु॑ धत्त। प्र॒जाप॑तेर्वो॒ धाम्ना॒स्मै लो॒काय॑ सादये ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मि॒त्राव॑रुणयो: । भा॒ग:। स्थ॒ । अ॒पाम् । शु॒क्रम् । आ॒प॒: । दे॒वी॒: । वर्च॑: । अ॒स्मासु॑ । ध॒त्त॒ । प्र॒जाऽप॑ते: । व॒: । धाम्ना॑ । अ॒स्मै । लो॒काय॑ । सा॒द॒ये॒ ॥५.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मित्रावरुणयोर्भाग स्थ। अपां शुक्रमापो देवीर्वर्चो अस्मासु धत्त। प्रजापतेर्वो धाम्नास्मै लोकाय सादये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मित्रावरुणयो: । भाग:। स्थ । अपाम् । शुक्रम् । आप: । देवी: । वर्च: । अस्मासु । धत्त । प्रजाऽपते: । व: । धाम्ना । अस्मै । लोकाय । सादये ॥५.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 5; मन्त्र » 11
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    विद्वानों के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे विद्वानो !] तुम (मित्रावरुणयोः) प्राण और अपान के (भागः) अंश (स्थ) हो [अर्थात् महाबली हो] ...... म० ७ ॥११॥

    भावार्थ

    मन्त्र ७ के समान है ॥११॥

    टिप्पणी

    ११−(मित्रावरुणयोः) प्राणापानयोः। अन्यत् पूर्ववत्−म० ७ ॥

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    विषय

    'अग्नि, इन्द्र, सोम, वरुण, मित्रावरुण, यम, पितर, देवसविता'

    पदार्थ

    १.हे (देवी: आप:) = दिव्य गुणयुक्त अथवा रोगों को जीतने की कामनावाले [दिव् विजिगीषायाम्] रेत:कणरूप जलो! आप (अग्ने:) = प्रगतिशील जीव [अग्रणी:] के (भाग: स्थ) = भाग हो, अर्थात् प्रगतिशील जीव को प्राप्त होते हो। इसी प्रकार (इन्द्रस्य) = जितेन्द्रिय पुरुष के, (सोमस्य) = सौम्य भोजनों के सेवन द्वारा सौम्य स्वभाववाले पुरुष के, (वरुणस्य) = पाप का निवारण करके श्रेष्ठ बने पुरुष के, (मित्रावरुणयो:) = स्नेहवाले व द्वेष का निवारण करनेवाले पुरुष के, (यमस्य) = संयमी पुरुष के, (पितृणाम्) = रक्षणात्मक कार्यों में प्रवृत्त पुरुषों के, (देवस्य सवितुः) = देववृत्ति का बनकर निर्माणात्मक कार्यों में लगे हुए पुरुष के (भाग: स्थ) = भाग हो। ये रेत:कण इन अग्नि, इन्द्र, सोम, वरुण, मित्रावरुण, यम, पितर व देवसविता' में ही सुरक्षित रहते हैं। अग्नि' आदि बनना ही वीर्यरक्षण का साधन होता है। २. हे [देवी: आप:-] दिव्य गुणयुक्त रेत:कणो! आप (अपां शुक्रम्) = कर्मों में लगे रहनेवाली प्रजाओं का वीर्य हो। आप (अस्मासु) = हममें (वर्चः धत्त) = वर्चस् को-रोगनिवारणशक्ति को धारण करो। मैं (व:) = आपको (प्राजपते: धाम्ना) = प्रजारक्षक प्रभु के तेज के हेतु से-प्रजापति के तेज को प्राप्त करने के लिए (अस्मै लोकास्य) = इस लोक के हित के लिए (सादये) = अपने में बिठाता हूँ। वौर्यरक्षण द्वारा मनुष्य प्रजापति के धाम को प्राप्त करता है और लोकहित के कार्यों में प्रवृत्त रहता है।

    भावार्थ

    रेत:कणों के रक्षण के लिए आवश्यक है कि हम प्रगतिशील हों[अग्नि], जितेन्द्रिय बनें [इन्द्र], पापवृत्ति से बचें [वरुण], स्नेह व द्वेष निवारणवाले हों [मित्रावरुण], संयमी बनें [यम], रक्षणात्मक व देववृत्ति के बनकर उत्पादक कार्यों में प्रवृत्त हों[ देव सविता]। ये रेत:कण ही कार्यनिरत प्रजाओं का वीर्य हैं, ये हमें रोगनिवारणशक्ति प्राप्त कराते हैं और प्रभु के तेज से तेजस्वी बनाकर लोकहित के कार्यों के योग्य बनाते हैं।

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    भाषार्थ

    (आपः देवीः) हे दिव्य प्रजाओ ! तुम (मित्रावरुणयोः) मित्र और वरुण के (भागः) भागरूप, अङ्गरूप (स्थ) हो। (अपाम् शुक्रम्) प्रजाओं की शक्ति और सामर्थ्य, (वर्चः) तथा दीप्ति (अस्मासु) हम अधिकारियों में (धत्त) स्थापित करो, हमें प्रदान करो। (प्रजापतेः धाम्ना) प्रजापति के नाम तथा स्थान द्वारा (वः) हे प्रजाओ ! तुम्हें (अस्मै लोकाय) इस पृथिवीलोक के लिये (सादये) मैं इन्द्र अर्थात् सम्राट् दृढ़ स्थापित करता हूं।

    टिप्पणी

    [मित्रावरुणयोः = मित्र है वह अधिकारी जो कि विदेशनीति के साथ सम्बन्ध रखता है, और भिन्न-भिन्न राष्ट्रों के साथ मैत्री स्थापित करता है। यथा "मित्रेणाग्ने मित्रधा यतस्व" (अथर्व० २।६।४), अर्थात् हे अग्नि ! [मन्त्र ७] "मित्र अधिकारी" द्वारा मित्रों का धारण करने वाला तु एतदर्थ यत्न करता रह। इसी प्रकार एतदर्थ राजा को भी कहा है "मित्रवर्धन"। (अथर्व० ४।८।२) तथा "मित्रवर्धनः" (अथर्व० ४।८।६)। इस से प्रतीत होता है कि "मित्रराष्ट्रों" को बढ़ाते रहना, यह वैदिक विदेशनीति है, जिसका कि अधिकारी विदेशमन्त्री "मित्र" नामक है। वरुणः – मित्र कार्य सम्बन्धी दूसरा अधिकारी वरुण है, जिस का काम है प्रजा को अवांछित कार्यों से रोके रखना, निवारित करते रहना। इस के अधिकार में राष्ट्रिय गुप्तचर [स्पशाः] रहते हैं (अथर्व० ४।१६।४)। यद्यपि सूक्त ४।१६।४ में वरुण द्वारा परमेश्वर का, और उसके नियमों का, “स्पशः" द्वारा वर्णन हुआ है, तो भी सूक्त में राष्ट्रियप्रबन्ध की भी सूचना वरुण और स्पशः द्वारा अभिप्रेत है। इस दृष्टि से मित्र-वरुण का सहचार (मन्त्र ११) में दर्शाया है। मन्त्रभावना के लिये देखो (मन्त्र ७)]।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Song of Victory

    Meaning

    O noble people of the world, you are part and partners of Mitra and Varuna, divine love, wisdom and pranic energies of nature. Like the purity and power of the universal flow of love and energy, you hold in you the spirit and essence of noble action. Bring us the purity, power and splendour of noble action with love and wisdom for the nation. With the rule and law of Prajapati and with the holiness of his glory, I assign and consecrate you to the life and happiness of this human nation.

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    Translation

    You are the Lord friendly and venerable (Mitrā-varuņa). O waters divine, may you put in us the lustre, (which is) the sperm of the waters. From the domain of the creator Lord, I set you (here) for this world.

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    Translation

    O learned men! you are possessed of the attribute of Mitravarunav, the twain of hydrogen and oxygen. Let the celestial waters grant unto us the brilliant energy. I, the priest by the splendor of the Lord of the Creatures establish you for this world of ours.

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    Translation

    O learned persons, ye are the subjects of the King, who is your savior from death and calamities. O divine noblemen, grant us the energy and brilliance of noble deeds. According to the law of God, I set you down for the welfare of the world!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ११−(मित्रावरुणयोः) प्राणापानयोः। अन्यत् पूर्ववत्−म० ७ ॥

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    हिंगलिश (1)

    Subject

    मित्रावरुणयोर्भाग - सब से मित्रता (अहिंसा) और अपनेपन का महत्व Friendship and empathy

    Word Meaning

    ( मित्रावरुणयोर्भाग – अहिंसा सब से मित्रता और अपनेपन Friendship and empathy ) की शक्ति द्वारा सब जीव जंतुओं और मनुष्यों के स्वाथ्य और उत्तम मानसिकता द्वारा जलों-तरल पदार्थों- भौतिक जल वनस्पतिओं के रस और मानव शरीर का संचारण करने वाले रक्त रेतस वीर्यादि रस में संसारिक सम्पन्नता,दीप्ति और वर्चस्व देने वाले प्रजा के पालन करने वाले ईश्वर के दिए दैवीय गुण- राजा,अग्रज और प्रजा सब जनों जितेंद्रिय हो कर जीवन में विजय प्राप्त करें

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