अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 35
ऋषिः - कौशिकः
देवता - विष्णुक्रमः
छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदा यथाक्षरं शक्वरी, अतिशक्वरी
सूक्तम् - विजय प्राप्ति सूक्त
39
विष्णोः॒ क्रमो॑ऽसि सपत्न॒हा प्रा॒णसं॑शितः॒ पुरु॑षतेजाः। प्रा॒णमनु॒ वि क्र॑मे॒ऽहं प्रा॒णात्तं निर्भ॑जामो॒ यो॒स्मान्द्वेष्टि॒ यं व॒यं द्वि॒ष्मः। स मा जी॑वी॒त्तं प्रा॒णो ज॑हातु ॥
स्वर सहित पद पाठविष्णो॑: । क्र॒म॑: । अ॒सि॒ । स॒प॒त्न॒ऽहा । प्रा॒णऽसं॑शित: । पुरु॑षऽतेजा: । प्रा॒णम् । अनु॑ । वि । क्र॒मे॒ । अ॒हम् । प्रा॒णात् । तम् । नि । भ॒जा॒म॒: । य: । अ॒स्मान् । द्वेष्टि॑ । यम् । व॒यम् । द्वि॒ष्म: । स: । मा । जी॒वी॒त् । तम् । प्रा॒ण: । ज॒हा॒तु॒ ॥५.३५॥
स्वर रहित मन्त्र
विष्णोः क्रमोऽसि सपत्नहा प्राणसंशितः पुरुषतेजाः। प्राणमनु वि क्रमेऽहं प्राणात्तं निर्भजामो योस्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः। स मा जीवीत्तं प्राणो जहातु ॥
स्वर रहित पद पाठविष्णो: । क्रम: । असि । सपत्नऽहा । प्राणऽसंशित: । पुरुषऽतेजा: । प्राणम् । अनु । वि । क्रमे । अहम् । प्राणात् । तम् । नि । भजाम: । य: । अस्मान् । द्वेष्टि । यम् । वयम् । द्विष्म: । स: । मा । जीवीत् । तम् । प्राण: । जहातु ॥५.३५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
विद्वानों के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
तू (विष्णोः) विष्णु [सर्वव्यापक परमेश्वर] से (क्रमः) पराक्रमयुक्त, (सपत्नहा) शत्रुओं का नाश करनेहारा, (प्राणसंशितः) प्राण से तीक्ष्ण किया गया और (पुरुषतेजाः) पुरुष [आत्मा] से तेज पाया हुआ (असि) है। (प्राणम् अनु) प्राण के पीछे (अहम्) मैं (वि क्रमे) पराक्रम करता हूँ, (प्राणात्) प्राण से (तम्) उस [शत्रु] को (निः भजामः) हम भागरहित करते हैं, (यः) जो (अस्मान्) हम से (द्वेष्टि) द्वेष करता है और (यम्) जिससे (वयम्) हम (द्विष्मः) द्वेष करते हैं। (सः) वह (मा जीवीत्) न जीता रहे, (तम्) उसको (प्राणः) प्राण (जहातु) छोड़ देवे ॥३५॥
भावार्थ
मनुष्य प्राण [जीवनसाधन वायु] और आत्मा [परमात्मा और जीवात्मा] के बोध से संसार में उन्नति करे ॥३५॥
टिप्पणी
३५−(प्राणसंशितः) प्राणात् तीक्ष्णीकृतः (पुरुषतेजाः) पुरुषात् परमात्मनो जीवात्मनश्च प्राप्ततेजाः (प्राणम्) प्राणसाधनं वायुम् (अनु) अनुसृत्य (प्राणात्) जीवनसाधनाद् वायुविशेषात्। अन्यत् पूर्ववत्−म० २५ ॥
विषय
प्राणसंशितः पुरुषतेजा:
पदार्थ
१. (विष्णो: क्रमः असि) = तू पवित्र पुरुष के पराक्रमवाला है, इसप्रकार (सपत्नहा) = रोग व वासनारूप शत्रुओं को नष्ट करनेवाला है। (प्राणसंशितः) = प्राणशक्ति के द्वारा तू तीक्ष्ण बना है, (पुरुषतेजाः) = तुझमें पुरुष को शोभा देनेवाली तेजस्विता है। २. तू निश्चय कर कि (अहम्) = मैं (प्राणम् अनु) = प्राणशक्ति का लक्ष्य करके (विक्रमे) = पुरुषार्थवाला होता हूँ। (प्राणात्) = इस प्राणशक्ति के द्वारा (तम्०) [शेष पूर्ववत्] ।
भावार्थ
पवित्र कर्मों को करते हुए हम तीब्र प्राणशक्तिवाले बनें, हममें पुरुषोचित तेजस्विता हो। प्राणशक्ति का सम्पादन करते हुए हम निद्वेष बनें।
पवित्र कर्मों द्वारा तीनशक्तियुक्त यह पुरुष सब रोग-द्वेष व रोगरूप शत्रुओं को समाप्त करके 'ब्रह्मा' श्रेष्ठ पुरुष बनता है। अगले छह मन्त्रों का ऋषि यह ब्रह्मा ही है -
भाषार्थ
(विष्णोः) विष्णु के (क्रमः) पराक्रम वाला (असि) तू है (सपत्नहा) सपत्न का हनन करने वाला है, (प्राणसंशितः) प्राणप्रद वस्तुओं के संग्रह में उग्रभावना वाला है, (पुरुषतेजाः१) सार्वभौम के पुरुषों के तेज वाला तू है। (अहम्) मैं (प्राणम् अनु) प्राणप्रद वस्तुओं के संग्रह में (विक्रमे) विक्रम अर्थात् पराक्रम करता हूं, (प्राणात्) प्राणप्रद वस्तुओं से (तम्) उसे (निर्भजामः) हम भाग रहित करते हैं, वञ्चित करते हैं (यः) जो कि (अस्मान् द्वेष्टि) हमारे साथ द्वेष करता है, और (यम्) जिस के साथ (वयम् द्विष्मः) हम द्वेष करते हैं। (सः) वह (मा) न (जीवीत्) जीवित रहे, (तम्) उसे (प्राणः) प्राण (जहातु) छोड़ जाय।
टिप्पणी
[मन्त्र के प्रथम और द्वितीय पाद में प्राण का अर्थ है प्राणप्रद वस्तुएं अर्थात् ओषधियां, जल, और अन्न (मन्त्र ३२-३४)। अन्न को तो प्राण कहते ही हैं, यथा "अन्नं वै प्राणिनां प्राणः", अर्थात् अन्न वास्तव में प्राणियों का प्राण है। मन्त्र में ओषधियां तथा जल भी प्राण अर्थात् प्राणप्रद अभिप्रेत हैं। पुरुषतेजाः – सार्वभौमशासक निज प्रशस्तशासन के आधार पर कहता है कि शासन में सब पुरुष मेरे साथ हैं, इस लिये मैं पुरुषतेज वाला हूं, समग्र पुरुषों के साहाय्य के कारण तेजस्वी हूं। शेष अभिप्राय मन्त्र (२५) के सदृश]। [१. अथवा शासन की "पुरुष-सेनाओं" के तेज वाला है।]
विषय
विजिगीषु राजा के प्रति प्रजा के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे राजन् ! (विष्णोः क्रमः, असि) तू प्रजापालक के पद पर नियुक्त है। तू (सपत्नहा) शत्रु का नाश (प्राण-संशितः) प्राणों में सुतीक्ष्ण (पुरुष-तेजाः) पुरुष आत्मा के तेज से तेजस्वी है। इस प्रकार प्रतिष्ठित होकर राजा संकल्प करे कि (प्राणम् अनु अहम् विक्रमे) मैं प्राण को वश करने का पराक्रम करूं। प्रजा संकल्प करे कि (प्राणात् तं०) प्राण से उसको०। इत्यादि पूर्ववत्। राजा को विष्णु के पद पर प्रतिष्ठित किया है। पृथिवी, अन्तरिक्ष, द्यौ, दिशा, आशा, ऋक्, यज्ञ, ओषधि, अपः, कृषि और प्राण, इन ११ पदार्थों से उसको सम्पन्न करके क्रम से उसमें अग्नि, वायु, सूर्य, मन, वात, साम, ब्रह्म, सोम, वरुण, अन्न और पुरुष इनके तेज से तेजस्वी किया जाता है। राजा प्रतिष्ठित होकर उक्त ग्यारहों तेजों से तेजस्वी होकर, उक्त ग्यारह पदार्थों पर वश करता है। और प्रजाएं अपने शत्रुओं को उक्त ग्यारहों पदार्थों से वञ्चित करने में समर्थ होती हैं। स्मृतियों ने समस्त देवों की मात्राओं को एकत्र कर राजा को बनाने और ‘विष्णु’ अवतार मानने या ‘नाविष्णुः पृथिवीपतिः’ का सिद्धान्त प्रकट किया है वह वेद के इसी सिद्धान्त पर अवलम्बित है। अराजके हि लोकेऽस्मिन् सर्वतो विद्रुते भयात्। रक्षार्थमस्य सर्वस्य राजानमसृजत् प्रभुः ॥ ३ ॥ इन्द्रानिलयमार्काणामग्नेश्च वरुणस्य च। चन्द्रवित्तेशयोश्चैव मात्रा निर्हृत्य शाश्वतीः ॥ ४ ॥ सोग्निर्भवति वायुश्च सोर्कः सोमः स धर्मराट्। स कुवेरः स वरुणः स महेन्द्रः प्रभावतः ॥ ७ ॥ (मनु० अ० ९) इसी प्रकार मनुने इन देवों के साथ राजा की तुलना की है। देखो मनु ०९, श्लोक ३००–३११।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-२४ सिन्धुद्वीप ऋषिः। २६-३६ कौशिक ऋषिः। ३७-४० ब्रह्मा ऋषिः। ४२-५० विहव्यः प्रजापतिर्देवता। १-१४, २२-२४ आपश्चन्द्रमाश्च देवताः। १५-२१ मन्त्रोक्ताः देवताः। २६-३६ विष्णुक्रमे प्रतिमन्त्रोक्ता वा देवताः। ३७-५० प्रतिमन्त्रोक्ताः देवताः। १-५ त्रिपदाः पुरोऽभिकृतयः ककुम्मतीगर्भा: पंक्तयः, ६ चतुष्पदा जगतीगर्भा जगती, ७-१०, १२, १३ त्र्यवसानाः पञ्चपदा विपरीतपादलक्ष्मा बृहत्यः, ११, १४ पथ्या बृहती, १५-१८, २१ चतुरवसाना दशपदा त्रैष्टुव् गर्भा अतिधृतयः, १९, २० कृती, २४ त्रिपदा विराड् गायत्री, २२, २३ अनुष्टुभौ, २६-३५ त्र्यवसानाः षट्पदा यथाक्ष शकर्योऽतिशक्वर्यश्च, ३६ पञ्चपदा अतिशाक्कर-अतिजागतगर्भा अष्टिः, ३७ विराट् पुरस्ताद् बृहती, ३८ पुरोष्णिक्, ३९, ४१ आर्षी गायत्र्यौ, ४० विराड् विषमा गायत्री, ४२, ४३, ४५-४८ अनुष्टुभः, ४४ त्रिपाद् गायत्री गर्भा अनुष्टुप्, ५० अनुष्टुप्। पञ्चशदर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
The Song of Victory
Meaning
You are Vishnu’s stride over life energy, destroyer of adversaries, strengthened and sharpened by the living energy of prana, blest by the splendour of Purusha, living spirit of the universe. I strive and advance in pursuance of prana. We remove from the way of vibrant living all those negativities which oppose and obstruct us and which we hate and reject. Let not such opposition to pranic progress survive and thrive. Let even life energy forsake such negativity, hate and enmity.
Translation
You are the stride (krama) of the Lord (Visņu) slayer of rivals, sharpened by the vital breaths (prāņa), full of man’s might (purusa-teja). I stride forth in the vital breaths. From the vital breaths, we drive out him, who hates us and whom we do hate; May he not live. May the vital breath quit him.
Translation
O King! You are representative of the All-pervading God amongst subjects you are the slayer of enemies, you are praised in vitality, and you possess the vigor of man. You should think, “I will play my glorious part in attaining vitality.” So that we may bar from attaining vitality that man who hates me and whom we abhor. Let him not be alive and let the vital air abandon him.
Translation
O King, thou followest the behest of God and art the protector of the people like Him. Thou art foe-slayer. Thou attainest strength through Pranayama. Thou art glorious through soul-force! I, asking, consider it my duty., to exert to control my breaths. We, the subjects, prevent from the abuse of breaths, him who hates us and whom we dislike. Let him not live, let vital breath desert him.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३५−(प्राणसंशितः) प्राणात् तीक्ष्णीकृतः (पुरुषतेजाः) पुरुषात् परमात्मनो जीवात्मनश्च प्राप्ततेजाः (प्राणम्) प्राणसाधनं वायुम् (अनु) अनुसृत्य (प्राणात्) जीवनसाधनाद् वायुविशेषात्। अन्यत् पूर्ववत्−म० २५ ॥
हिंगलिश (1)
Subject
प्राणसंशितः पुरुषतेजाः ।प्राणं- पुरुष में त्रय प्राणों –प्राण, व्यान, अपान –प्राणायाम द्वारा तेजस्विता
Word Meaning
विष्णु के संसार के पालन कर्त्ता कार्यक्षेत्र में पराक्रमी बन कर “.पुरुष में त्रय प्राणों –प्राण, व्यान, अपान –प्राणायाम द्वारा तेजस्विता ” एक क्रम से (योजनाबद्ध ढंग से ) कर्म करने से सब शत्रुरूपि विघ्न बाधाओं रुकावटों पर विजय पानी होती है | और जो हमारे (इस वेदाधारित ) सृष्टि पालन धर्म की अवहेलना करते है हम से द्वेष करते है वे हमारी सब उपलब्धियों समृद्धियों से वंचित रहेगे और स्वयं ही नष्ट हो जाएंगे |
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