अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 24
ऋषिः - सिन्धुद्वीपः
देवता - आपः, चन्द्रमाः
छन्दः - त्रिपदा विराड्गायत्री
सूक्तम् - विजय प्राप्ति सूक्त
49
अ॑रि॒प्रा आपो॒ अप॑ रि॒प्रम॒स्मत्। प्रास्मदेनो॑ दुरि॒तं सु॒प्रती॑काः॒ प्र दुः॒ष्वप्न्यं॒ प्र मलं॑ वहन्तु ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒रि॒प्रा: । आप॑: । अप॑ । रि॒प्रम् । अ॒स्मत् । प्र । अ॒स्मत् । एन॑: । दु॒:ऽइ॒तम् । सु॒ऽप्रती॑का: । प्र । दु॒:ऽस्वप्न्य॑म् । प्र । मल॑म् । व॒ह॒न्तु॒ ॥५.२४॥
स्वर रहित मन्त्र
अरिप्रा आपो अप रिप्रमस्मत्। प्रास्मदेनो दुरितं सुप्रतीकाः प्र दुःष्वप्न्यं प्र मलं वहन्तु ॥
स्वर रहित पद पाठअरिप्रा: । आप: । अप । रिप्रम् । अस्मत् । प्र । अस्मत् । एन: । दु:ऽइतम् । सुऽप्रतीका: । प्र । दु:ऽस्वप्न्यम् । प्र । मलम् । वहन्तु ॥५.२४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
विद्वानों के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(अरिप्राः) निर्दोष (आपः) विद्वान् लोग (रिप्रम्) पाप को (अस्मत्) हम से (अप) दूर [पहुँचावें] (सुप्रतीकाः) बड़ी प्रतीतिवाले वा सुन्दर रूपवाले लोग (अस्मत्) हम से (दुरितम्) कठिन (एनः) पाप को (प्र) दूर (दुः स्वप्न्यम्) दुष्ट स्वप्न को (प्र) दूर और (मलम्) मलिनता को (प्र) दूर (वहन्तु) पहुँचावें ॥२४॥
भावार्थ
विद्वान् लोग घोर पापों से बचकर दूसरों को पापों से छुड़ा कर सुखी करते हैं ॥२४॥
टिप्पणी
२४−(अरिप्राः) निर्दोषाः (आपः) म० ६। विद्वांसः (अप) दूरे (रिप्रम्) अ० ६।५१।२। पापम् (अस्मत्) (प्र) दूरे (अस्मत्) (एनः) पापम् (दुरितम्) कठिनम् (सुप्रतीकाः) अ० ४।२१।६। सु+प्र+इण् गतौ-ईकन् तुट् च। शोभनप्रतीतिमन्तः। शोभनरूपाः (प्र) (दुःस्वप्न्यम्) दुष्टस्वप्नभावम् (प्र) (मलम्) मालिन्यम् (वहन्तु) गमयन्तु ॥
विषय
'रिप्रं, एनः, दुरितं, मलम्' [अव प्रवहन्तु]
पदार्थ
१. (आप:) = ये रेत:कण (अरिप्राः) = दोषरहित हैं। ये रेत:कण (रिप्रम्) = दोष को (अस्मत् अप) = हमसे दूर करें। ये (सुप्रतीका:) = [प्रतीक limb, member] शोभन अंगोवाले-सब अंगों को सुन्दर बनानेवाले रेत:कण (अस्मत्) = हमसे (एन:) = पापों को (प्रवहन्तु) = दूर बहा ले-जाएँ। (दुरितम्) = दुराचरण को ये हमसे (प्र) [वहन्तु] = दूर करें। (दुःष्वप्न्यम्) = दुष्ट स्वप्नों के कारणभूत (मलम्) = मल को (प्र) [वहन्तु] = हमसे दूर बहा दें।
भावार्थ
रेत:कणों का रक्षण हमसे 'दोष, पाप, दुराचरण व दु:ष्वप्न्य मलों को दूर करनेवाला होता है। इन रेत:कणों के रक्षण के उद्देश्य से यह कृषि आदि उत्पादक कर्मों में प्रवृत्त रहता है। कृषि में हल का स्थान प्रमुख है। इसके फाल को ही 'कुशिक' [ploughshare] कहते हैं। यह कुशिक का ही हो जाता है [कुशिकस्य अयं], अत: 'कौशिक' कहलाता है। यही अगले [२५-३५] मत्रों का ऋषि है -
भाषार्थ
(आपः) शारीरिक जल (अथर्व० १०।२।११) "रस-रक्त" आदि, तथा सप्त प्राण (मन्त्र २३) (अरिप्राः) पापरहित हो गए हैं, अतः (अस्मत्) हम से (रिप्रम्) पाप (अप) अपगत हो गया है। (सुप्रतीकाः) मुख को उत्तम बना देने वाले वे निष्पाप "आपः" (अस्मत्) हमसे (दुरितम्) दुष्परिणामी (एनः) पाप को (प्र वहन्तु) प्रवाहित करदें, और (दुःष्वप्न्यम्) बुरे स्वप्नों के परिणामरुप (मलम्) चैत्त मल को (प्र प्र वहन्दु) प्रवाहित करदें।
टिप्पणी
[रिप्र का अर्थ है पाप। "रपो रिप्रमिति पापनामनी" (निरक्त ४।३।२१)। शारीरिक रस-रक्त, और पांचज्ञानेन्द्रियों, मन और विद्या के निष्पाप और पवित्र हो जाने पर मनुष्य पवित्र हो जाता है, और उसका चेहरा चमक जाता है, तथा स्वप्न सात्त्विक हो कर बुरे चैत्त मल से विहीन हो जाते हैं। विशेष वक्तव्य- (१) मन्त्र १-२४ में स्थान-स्थान पर "आपः" शब्द का प्रयोग हुआ है, जिस का प्रसिद्ध अर्थ जल है। मन्त्रों में "जल अर्थ" द्वारा मन्त्रों के अर्थ युक्तियुक्त तथा बुद्धिग्राह्य नहीं रहते। वैदिक साहित्य में "आपः" शब्द नाना अर्थों में प्रयुक्त होता है। (१) आपः अर्थात् व्यापक ब्रह्म, [आप्लृ व्याप्तौ] (यजु० ३१।१)। (२) आपः= ५ ज्ञानेन्द्रियां, मन और विद्या (यजु० ३४/।५५)। (३) आपः= रक्त, रुधिर (अथर्व० १०।२।११)। (४) आपः अन्तरिक्षनाम (निघं० १।३)। (५) आपः पदनाम (निघं० ५।३), इत्यादि। अतः इन मन्त्रों की व्याख्या में "आपः" का अर्थ मन्त्राभिप्रायानुसार किया गया हैं, जोकि बुद्धिग्राह्य है। मन्त्र १५-२१ में आध्यात्मिक तत्त्वों का वर्णन भी अभिप्रेत है। "यजुष्यः, देवयजनः" द्वारा परमेश्वर का, "अवनिक्षि" द्वारा शरीर या मन की शुचिता, पवित्रता का, “द्वेष्टि” द्वारा राजसिक और तामसिक मनरूपी शत्रुराजा का (मन्त्र २९); "ब्रह्मणा" द्वारा परब्रह्म का (मन्त्र २१), "कर्मना" द्वारा स्तुति-उपासना रूप कर्म का (मन्त्र २१); "मेन्या" द्वारा ज्ञान-वज्र का (मन्त्र २१), वर्णन भी अभिप्रेत है। इसी प्रकार "भागः" [सेवनीय, भजनीय], ऊर्मिः, वत्सः, वृषभः, हिरण्यगर्भः, पृश्निः तथा दिव्य अश्मा, तथा पापों को भस्म करने वाली यजुष्याः अग्नियां, त्रैहायण-अनृत भाषण न करना, दुरित अंहस्, रिप्रका अपगमन" - आदि का वर्णन भी आध्यात्मिक भावनाओं का सूचक है। राजसिक तामसिक- मन भी शारीरिक जीवन में राजा है, परन्तु है शत्रुरूप राजा। इस का विनाश करना चाहिये, और सात्विक मन का उपार्जन करना चाहिये। तभी प्रजाएं “अरिप्राः" हो सकती हैं। यथा-"मन एवं मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः”। राजसिक-तामसिक मन बन्ध का कारण है अतः शत्रु है, और सात्त्विकमन मोक्ष का कारण है, अतः मित्र है।
इंग्लिश (4)
Subject
The Song of Victory
Meaning
Let the waters of nature and sages of humanity, free from sin and defilement, noble and beautiful of aspect, wash off all sin and evil from us, cast away all dirt and evil dreams from us.
Translation
O pure and clean waters, carry the impurity away from us. May these (waters), beautiful to look at, take the evil, the bad dream and the deficient away from us.
Translation
As the water washes away the dirt of other so the learned men free from all ills, remove our evils and troubles and drive away from us the tendency of bad dream.
Translation
Immaculate are learned persons. May they cleanse us from defilement. O beautiful learned persons remove our sin and trouble, and bear away illdream and all mental pollution!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२४−(अरिप्राः) निर्दोषाः (आपः) म० ६। विद्वांसः (अप) दूरे (रिप्रम्) अ० ६।५१।२। पापम् (अस्मत्) (प्र) दूरे (अस्मत्) (एनः) पापम् (दुरितम्) कठिनम् (सुप्रतीकाः) अ० ४।२१।६। सु+प्र+इण् गतौ-ईकन् तुट् च। शोभनप्रतीतिमन्तः। शोभनरूपाः (प्र) (दुःस्वप्न्यम्) दुष्टस्वप्नभावम् (प्र) (मलम्) मालिन्यम् (वहन्तु) गमयन्तु ॥
हिंगलिश (1)
Subject
अपराध रहित समाज Crime free society
Word Meaning
(आप:) हे आप्त- अपवादहीन,अभ्यस्त, तर्क संगत, बुद्धिमान ,सत्याधारित प्रजा जनो जब हमारे शरीर के सब रस पापरहित और स्वच्छ हो जाएंगे तब सब प्रकार की दुष्परिणामी परिस्थितियां , दुष्स्वप्न से भी दूर हो जाएंगे |
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