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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 7
    ऋषिः - सिन्धुद्वीपः देवता - आपः, चन्द्रमाः छन्दः - त्र्यवसाना पञ्चपदा विपरीतपादलक्ष्मा बृहती सूक्तम् - विजय प्राप्ति सूक्त
    58

    अ॒ग्नेर्भा॒ग स्थ॑। अ॒पां शु॒क्रमा॑पो देवी॒र्वर्चो॑ अ॒स्मासु॑ धत्त। प्र॒जाप॑तेर्वो॒ धाम्ना॒स्मै लो॒काय॑ सादये ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्ने: । भा॒ग: । स्थ॒ । अ॒पाम् । शु॒क्रम् । आ॒प॒: । दे॒वी॒: । वर्च॑: । अ॒स्मासु॑ । ध॒त्त॒ । प्र॒जाऽप॑ते: । व॒: । धाम्ना॑ । अ॒स्मै । लो॒काय॑ । सा॒द॒ये॒ ॥५.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्नेर्भाग स्थ। अपां शुक्रमापो देवीर्वर्चो अस्मासु धत्त। प्रजापतेर्वो धाम्नास्मै लोकाय सादये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने: । भाग: । स्थ । अपाम् । शुक्रम् । आप: । देवी: । वर्च: । अस्मासु । धत्त । प्रजाऽपते: । व: । धाम्ना । अस्मै । लोकाय । सादये ॥५.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 5; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    विद्वानों के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे विद्वानो !] तुम (अग्नेः) अग्नि का (भागः) अंश (स्थ) हो [अर्थात् तेजस्वी हो]। (देवीः) हे उत्तम गुणवाली (आपः) विदुषी प्रजाओ ! (अपाम्) विद्वानों के बीच (अस्मासु) हम में (शुक्रम्) वीरता और (वर्चः) तेज (धत्त) धारण करो। (वः) तुमको (प्रजापतेः) प्रजापति [परमेश्वर] के (धाम्ना) धर्म [नियम] से (अस्मै) इस (लोकाय) लोक [के हित] के लिये (सादये) मैं बैठाता हूँ ॥७॥

    भावार्थ

    मनुष्य अग्नि आदि के समान तेजस्वी आदि गुणवान् होकर ईश्वरनियम पर चलकर संसार का उपकार करें ॥७॥

    टिप्पणी

    ७−(अग्नेः) पावकस्य (भागः) अंशः। तेजः (स्थ) (अपाम्) म० ६। विदुषां मध्ये (शुक्रम्) वीर्यम्। पराक्रमम् (आपः) हे आप्ताः प्रजाः-यथा दयानन्दभाष्ये, यजु० ६।२७ (देवीः) दिव्याः (वर्चः) तेजः (अस्मासु) (धत्त) धरत (प्रजापतेः) प्रजापालकस्य परमेश्वरस्य (वः) युष्मान् (धाम्ना) धर्मणा। नियमेन (अस्मै) पुरोवर्तमानाय (लोकाय) संसारहिताय (सादये) स्थापयामि ॥

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    विषय

    'अग्नि, इन्द्र, सोम, वरुण, मित्रावरुण, यम, पितर, देवसविता'

    पदार्थ

    १.हे (देवी: आप:) = दिव्य गुणयुक्त अथवा रोगों को जीतने की कामनावाले [दिव् विजिगीषायाम्] रेत:कणरूप जलो! आप (अग्ने:) = प्रगतिशील जीव [अग्रणी:] के (भाग: स्थ) = भाग हो, अर्थात् प्रगतिशील जीव को प्राप्त होते हो। इसी प्रकार (इन्द्रस्य) = जितेन्द्रिय पुरुष के, (सोमस्य) = सौम्य भोजनों के सेवन द्वारा सौम्य स्वभाववाले पुरुष के, (वरुणस्य) = पाप का निवारण करके श्रेष्ठ बने पुरुष के, (मित्रावरुणयो:) = स्नेहवाले व द्वेष का निवारण करनेवाले पुरुष के, (यमस्य) = संयमी पुरुष के, (पितृणाम्) = रक्षणात्मक कार्यों में प्रवृत्त पुरुषों के, (देवस्य सवितुः) = देववृत्ति का बनकर निर्माणात्मक कार्यों में लगे हुए पुरुष के (भाग: स्थ) = भाग हो। ये रेत:कण इन अग्नि, इन्द्र, सोम, वरुण, मित्रावरुण, यम, पितर व देवसविता' में ही सुरक्षित रहते हैं। अग्नि' आदि बनना ही वीर्यरक्षण का साधन होता है। २. हे [देवी: आप:-] दिव्य गुणयुक्त रेत:कणो! आप (अपां शुक्रम्) = कर्मों में लगे रहनेवाली प्रजाओं का वीर्य हो। आप (अस्मासु) = हममें (वर्चः धत्त) = वर्चस् को-रोगनिवारणशक्ति को धारण करो। मैं (व:) = आपको (प्राजपते: धाम्ना) = प्रजारक्षक प्रभु के तेज के हेतु से-प्रजापति के तेज को प्राप्त करने के लिए (अस्मै लोकास्य) = इस लोक के हित के लिए (सादये) = अपने में बिठाता हूँ। वौर्यरक्षण द्वारा मनुष्य प्रजापति के धाम को प्राप्त करता है और लोकहित के कार्यों में प्रवृत्त रहता है।

    भावार्थ

    रेत:कणों के रक्षण के लिए आवश्यक है कि हम प्रगतिशील हों[अग्नि], जितेन्द्रिय बनें [इन्द्र], पापवृत्ति से बचें [वरुण], स्नेह व द्वेष निवारणवाले हों [मित्रावरुण], संयमी बनें [यम], रक्षणात्मक व देववृत्ति के बनकर उत्पादक कार्यों में प्रवृत्त हों[ देव सविता]। ये रेत:कण ही कार्यनिरत प्रजाओं का वीर्य हैं, ये हमें रोगनिवारणशक्ति प्राप्त कराते हैं और प्रभु के तेज से तेजस्वी बनाकर लोकहित के कार्यों के योग्य बनाते हैं।

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    भाषार्थ

    (आपः देवीः) हे दिव्य प्रजाओ ! तुम (अग्नेः) अग्नि के (भागः) भागरूप, अङ्गरूप (स्थ) हो, (अपाम् शुक्रम्) प्रजाओं की शक्ति और सामर्थ्य, (वर्चः) तथा दीप्ति (अस्मासु) हम अधिकारियों में (धत्त) स्थापित करो, हमें प्रदान करो। (प्रजापतेः धाम्ना) प्रजापति के नाम तथा स्थान द्वारा (वः) हे प्रजाओ ! तुम्हें (भस्मै लोकाय) इस पृथिवी लोक के लिये (सादये) मैं इन्द्र अर्थात् सम्राट् दृढ़-स्थापित करता हूं।

    टिप्पणी

    [अग्नेः = अग्नि पद द्वारा, आधिभौतिक दृष्टि में, ब्राह्मण का भी निर्देश वैदिक साहित्य में होता है। यह अग्नि अग्रणी है, राज्य का अग्रगामी नेता है, प्रधानमन्त्रीरूप है। कठोपनिषद् में कहा है कि "वैश्वानरः प्रविशत्यग्नि ब्रह्मणो गृहान्" (अ० १, वल्ली १, खण्ड ७), अर्थात् ब्राह्मण वैश्वानरः अग्निरूप में घरों में करता है। ब्राह्मण वैश्वानर है, सब नर नारियों का हितचिन्तक है, और वह ज्ञानाग्निमय है। सम्राट् कहता है कि है प्रजाओ ! तुम अग्नि के शासन में भागरूप हो, तुम्हारे सहयोग द्वारा अग्नि, शासन में सफल होगा, अन्यथा नहीं। "अस्मासु" द्वारा राज्य के सभी शासक, प्रजाओं का सहयोग चाहते हैं। सम्राट् कहता है कि प्रजाओं का पालक परमेश्वर जैसे प्रजापति नाम वाला है, और प्रजापति के स्थान अर्थात् पद को प्राप्त करता है, उस नाम वाला तथा उस स्थान अर्थात् पद को प्राप्त मैं, तुम सब का पालन करता हुआ, इस पृथिवी लोक में तुम्हें सुदृढ़रूप में स्थापित करता हूं। इसी प्रकार की भावनाएं आगामी मन्त्रों में भी जाननी चाहिये। धाम्ना= "धामानि त्रयाणि भवन्ति नामानि, स्थानानि जन्मानि" (निरुक्त ९।३।२८)]।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Song of Victory

    Meaning

    O noble people of divine humanity, you are part and partners of Agni, leading lights of the nation. Like the purity and energy of waters, you hold in you the spirit and essence of noble action. Bring in and vest in us the purity, power and splendour of noble action for the nation. With the rule and law of Prajapati and with the holiness of his glory, I assign and dedicate you to the welfare of this nation.

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    Translation

    You are the portion of the adorable Lord (Agni). O waters divine, may you put in us the lustre, (which is) the sperm of the waters. From the domain of the creator Lord. I set you (here) for this world.

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    Translation

    O learned men! you are possessed of the attribute of Agni, the fire. Let the celestial waters grant unto us the brilliant energy. I, the priest by the splendor of Lord of the Creatures establish you for this world a fours.

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    Translation

    O learned persons, ye are the subjects of the fiery King. O divine noblemen, grant us the energy and brilliance of noble deeds. According to the law of God, I set you down for the welfare of this world!

    Footnote

    I:Priest.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ७−(अग्नेः) पावकस्य (भागः) अंशः। तेजः (स्थ) (अपाम्) म० ६। विदुषां मध्ये (शुक्रम्) वीर्यम्। पराक्रमम् (आपः) हे आप्ताः प्रजाः-यथा दयानन्दभाष्ये, यजु० ६।२७ (देवीः) दिव्याः (वर्चः) तेजः (अस्मासु) (धत्त) धरत (प्रजापतेः) प्रजापालकस्य परमेश्वरस्य (वः) युष्मान् (धाम्ना) धर्मणा। नियमेन (अस्मै) पुरोवर्तमानाय (लोकाय) संसारहिताय (सादये) स्थापयामि ॥

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    हिंगलिश (1)

    Subject

    Energy external & internal determination

    Word Meaning

    जल से भौतिक ऊर्जा विद्युत्यादि, कृषि में सिंचाइ आदि पेय जल की सुविधा , जल के स्रोतों नदियों इत्यादि की स्वच्छता से उन की शक्ति द्वारा सब जीव जंतुओं और मनुष्यों के स्वाथ्य और उत्तम मानसिकता द्वारा जलों-तरल पदार्थों- भौतिक जल वनस्पतिओं के रस और मानव शरीर का संचारण करने वाले रक्त रेतस वीर्यादि रस में संसारिक सम्पन्नता, दीप्ति और वर्चस्व देने वाले प्रजा के पालन करने वाले ईश्वर के दैवीय गुण- राजा,अग्रज और प्रजा सब जनों में जितेंद्रिय बन कर जीवन में विजय प्राप्त करें

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