अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 37
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - मन्त्रोक्ता
छन्दः - विराट्पुरस्ताद्बृहती
सूक्तम् - विजय प्राप्ति सूक्त
41
सूर्य॑स्या॒वृत॑म॒न्वाव॑र्ते॒ दक्षि॑णा॒मन्वा॒वृत॑म्। सा मे॒ द्रवि॑णं यच्छतु॒ सा मे॑ ब्राह्मणवर्च॒सम् ॥
स्वर सहित पद पाठसूर्य॑स्य । आ॒ऽवृत॑म् । अ॒नु॒ऽआव॑र्ते । दक्षि॑णाम् । अनु॑ । आ॒ऽवृत॑म् । सा । मे॒ । दवि॑णम् । य॒च्छ॒तु॒ । सा । मे॒ । ब्रा॒ह्म॒ण॒ऽव॒र्च॒सम् ॥५.३७॥
स्वर रहित मन्त्र
सूर्यस्यावृतमन्वावर्ते दक्षिणामन्वावृतम्। सा मे द्रविणं यच्छतु सा मे ब्राह्मणवर्चसम् ॥
स्वर रहित पद पाठसूर्यस्य । आऽवृतम् । अनुऽआवर्ते । दक्षिणाम् । अनु । आऽवृतम् । सा । मे । दविणम् । यच्छतु । सा । मे । ब्राह्मणऽवर्चसम् ॥५.३७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
विद्वानों के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(सूर्यस्य) सूर्य की (आवृतम्) परिपाटी [रीति पर] (अन्वावर्ते) मैं चला चलता हूँ, [उसकी] (दक्षिणाम्) वृद्धियुक्त (आवृतम् अनु) परिपाटी पर। (सा) वह [परिपाटी] (मे) मुझे (द्रविणम्) बल और (सा) वह (मे) मुझे (ब्राह्मणवर्चसम्) ब्राह्मण [ब्रह्मज्ञानी] का प्रताप (यच्छतु) देवे ॥३७॥
भावार्थ
मनुष्य सूर्य के समान ईश्वरकृत नियम पर चलकर बल और ब्रह्मविद्या प्राप्त करे ॥३७॥
टिप्पणी
३७−(सूर्यस्य) (आवृतम्) वृञ् वरणे-क्विप्, तुक्। परिपाटीम्। रीतिम् (अन्वावर्ते) निरन्तरं गच्छामि (दक्षिणाम्) दक्ष वृद्धौ शैघ्र्ये च-इनन्, टाप्। प्रवृद्धाम् (अनु) क्रियायोगे। अन्वावर्ते (आवृतम्) (सा) आवृत् (मे) मह्यम् (द्रविणम्) बलम्-निग० २।९। (यच्छतु) दाण् दाने। ददातु (सा) (मे) (ब्राह्मणवर्चसम्) ब्रह्महस्तिभ्यां वर्चसः। पा० ५।४।७८। अच् बाहुलकात्। ब्राह्मणस्य ब्रह्मज्ञानिनः पुरुषस्य प्रतापम् ॥
विषय
द्रविण-ब्राह्मणवर्चस्
पदार्थ
१. मैं (सूर्यस्य आवृतम् अनु आवर्ते) = सूर्य के आवर्तन के अनुसार आवर्तनवाला होता हूँ। सूर्य जिस प्रकार नियम से मार्ग पर आगे और आगे बढ़ता है, उसी प्रकार मैं नियमित रूप से अपनी दिनचर्या में चलता हूँ। ('पूषन् तव व्रते वयं न रिष्येम कदाचन') = हे सूर्य! तेरे व्रत में हम कभी हिंसित न हों। (दक्षिणाम् आवृतम् अनु) [आवर्ते] = [दक्ष वृद्धी] वृद्धि के कारणभूत इस आवर्तन के पीछे मैं आवर्तनवाला होता हूँ। २. (सा) = वृद्धि की कारणभूत सूर्य के समान पालिता होती हुई वह दिनचर्या मे मेरे लिए (द्रविणं यच्छतु) = कार्यसाधक धन प्रदान करें।
भावार्थ
सूर्य की भाँति नियमितरूप से मार्ग पर चलते हुए हम धनों व ज्ञान के बलों को प्राप्त करें।
भाषार्थ
(सूर्यस्य) सूर्य की (आवृतम्, अनु) गति के अनुरूप (आवर्ते) मैं सार्वभौमशासक गति करता हूं, चलता हूँ। (दक्षिणाम, अनु) अर्थात् दक्षिण दिशा की ओर (आवृतम् अनु, आवर्ते) सूर्य की गति के अनुरूप गति करता हूं, चलता हूँ। (सा) वह आवृत् (मे) मुझे (द्रविणम्) बल या धन (यच्छतु) देवे, (सा) वह आवृत् (मे) मुझे (ब्राह्मणवर्चसम) ब्राह्मणों को दीप्ति देवे।
टिप्पणी
[सूर्य दक्षिणायन की ओर जाता हुआ दक्षिण दिशा की ओर गति करता है। इस गति में वह उत्तरायण की तीक्ष्णगर्मी का परित्याग कर, शान्तप्रकृतिक हो जाता है। सार्वभौमशासक भी शासन में शान्ति चाहता है। इस भावना को वह ब्राह्मणवर्चस की प्राप्ति द्वारा भी सूचित करता है। ब्राह्मण शान्त प्रकृति के होते हैं, और क्षत्रिय उग्र प्रकृति के। शान्ति को ही मन्त्र में द्रविण कहा है, वास्तविक बल या धन कहा है। शासन का उद्देश्य भी यही होता है कि प्रजा में शान्ति का स्थापन। शान्तिसम्पन्न प्रजा ही उन्नति कर सकती है। दक्षिण दिशा की ओर जाता हुआ सूर्य मकर-राशि तक शान्त होता जाता है।]
विषय
सूर्य का अनुवर्तन
शब्दार्थ
मैं (सूर्यस्य) सूर्य के (आवृतम् अनु) नियम, रीति, व्रत पर (आवर्ते) चलूँ, आचरण करूँ । (दक्षिणाम्) वृद्धि के, तेज के (आवर्तम्) मार्ग पर (अनु) आचरण करूं (सा) वह सूर्य के मार्ग पर आचरण-शैली (मे) मुझे (द्रविणम्) बल, धन, सम्पत्ति (यच्छतु) प्रदान करे (सा) वही आचरण (मे) मुझे (ब्राह्मणवर्चसम्) सूर्य-सम तेज प्रदान करे ।
भावार्थ
१. सूर्य का व्रत, नियम अथवा मार्ग क्या है ? नियमबद्धता, नियमितता । सूर्य समय पर उदय होता है, समय पर ही अस्त होता है। सूर्य स्वयं पवित्र है, दूसरों को पवित्र करता है। सूर्य तेजस्वी है । सूर्य स्वयं चमकता है, दूसरों को चमकाता है । २. सूर्य के इन व्रतों को यदि हम अपने जीवन में धारण करलें, हम भी अपने जीवन को नियमित, पवित्र और तेजस्वी बनाने का प्रयत्न करें तो हम दक्षता=वृद्धि के मार्ग पर अग्रसर होंगे । ३. सूर्य के मार्ग का अनुसरण करने से हमें शारीरिक बल की, धन, धान्य और ऐश्वर्य की प्राप्ति होगी । ४. सूर्य के गुणों को जीवन में धारण करके हम भी सूर्य के समान चमक उठेंगे । हमारे जीवन ओजस्वी और तेजस्वी बनेगे। जिस प्रकार सूर्य अन्धकार को नष्ट कर देता है, उसी प्रकार हम भी अविद्या-अन्धकार को नष्ट करने में सफल होंगे । हे मानव! सूर्य का अनुवर्तन कर, तू भी सूर्य सम तेजस्वी बन जाएगा ।
विषय
विजिगीषु राजा के प्रति प्रजा के कर्त्तव्य।
भावार्थ
मैं राजा (सूर्यस्य आवृतम् अनु) सूर्य के मार्ग या व्रत पर ही (आवर्ते) आचरण करूं। सूर्य के समान तेजस्वी होकर उसके समान शासन करूं और (दक्षिणाम् अनु आवृतम्) और सूर्य जिस प्रकार दक्षिण दिशा में तीक्ष्ण होता है उसी प्रकार मैं राजा भी दक्ष=बलशाली होकर असह्य तेज से युक्त हो जाऊं। (सा) वह सूर्य के समान आचरण शैली (मे) मुझ (द्रविणं यच्छतु) द्रव्य सम्पत्ति प्रदान करे और (सा) वही वृत्ति (मे) मुझे (ब्राह्मण-वर्चसम्) ब्राह्म तेज, ब्राह्मणों का तेज, विद्वानों का बल भी प्रदान करे। सूर्य का व्रत मनुस्मृति में— अष्टौ मासान् यथादित्यस्तोयं हरति रश्मिभिः। तथा हरेत् करं राष्ट्रान्नित्यमर्कव्रतं हि तत् ॥ आठ मासों तक जिस प्रकार सूर्य अपनी किरणों से जल लेता है उसी प्रकार राजा नित्य अपने राष्ट्र से कर संग्रह करे। यह ‘अर्कव्रत’ है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-२४ सिन्धुद्वीप ऋषिः। २६-३६ कौशिक ऋषिः। ३७-४० ब्रह्मा ऋषिः। ४२-५० विहव्यः प्रजापतिर्देवता। १-१४, २२-२४ आपश्चन्द्रमाश्च देवताः। १५-२१ मन्त्रोक्ताः देवताः। २६-३६ विष्णुक्रमे प्रतिमन्त्रोक्ता वा देवताः। ३७-५० प्रतिमन्त्रोक्ताः देवताः। १-५ त्रिपदाः पुरोऽभिकृतयः ककुम्मतीगर्भा: पंक्तयः, ६ चतुष्पदा जगतीगर्भा जगती, ७-१०, १२, १३ त्र्यवसानाः पञ्चपदा विपरीतपादलक्ष्मा बृहत्यः, ११, १४ पथ्या बृहती, १५-१८, २१ चतुरवसाना दशपदा त्रैष्टुव् गर्भा अतिधृतयः, १९, २० कृती, २४ त्रिपदा विराड् गायत्री, २२, २३ अनुष्टुभौ, २६-३५ त्र्यवसानाः षट्पदा यथाक्ष शकर्योऽतिशक्वर्यश्च, ३६ पञ्चपदा अतिशाक्कर-अतिजागतगर्भा अष्टिः, ३७ विराट् पुरस्ताद् बृहती, ३८ पुरोष्णिक्, ३९, ४१ आर्षी गायत्र्यौ, ४० विराड् विषमा गायत्री, ४२, ४३, ४५-४८ अनुष्टुभः, ४४ त्रिपाद् गायत्री गर्भा अनुष्टुप्, ५० अनुष्टुप्। पञ्चशदर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
The Song of Victory
Meaning
Part 3 I follow the course of life in accordance with the course of the sun on the right, in Dakshinayana. May that course of progress give me strength and wealth of honour and glory of Brahmanic splendour of peace.
Translation
I follow the course of the Sun (suryasya-āvrtam), his turning to the south. May she grant me wealth; may she grant me an intellectual person’s lusture.
Translation
I follow the course of the sun and I adhere to the course of accomplishment and efficiency. May that bestow upon me wealth and glory of the Brahmana, the man who knows Veda and God.
Translation
I follow the course of the Sun. Just as the Sun is intense in heat in the South, so should I be equipped with glory and fervour. May that behavior bestow upon me wealth and glory of knowledge.
Footnote
I: The king. Follow the course: Just as the Sun illumines the world with his light, so should I rule over my subjects with zeal and strength.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३७−(सूर्यस्य) (आवृतम्) वृञ् वरणे-क्विप्, तुक्। परिपाटीम्। रीतिम् (अन्वावर्ते) निरन्तरं गच्छामि (दक्षिणाम्) दक्ष वृद्धौ शैघ्र्ये च-इनन्, टाप्। प्रवृद्धाम् (अनु) क्रियायोगे। अन्वावर्ते (आवृतम्) (सा) आवृत् (मे) मह्यम् (द्रविणम्) बलम्-निग० २।९। (यच्छतु) दाण् दाने। ददातु (सा) (मे) (ब्राह्मणवर्चसम्) ब्रह्महस्तिभ्यां वर्चसः। पा० ५।४।७८। अच् बाहुलकात्। ब्राह्मणस्य ब्रह्मज्ञानिनः पुरुषस्य प्रतापम् ॥
हिंगलिश (1)
Subject
ध्रव पंक्ति: - सा मे द्रविणं यच्छतु सा मे ब्राह्मणवर्चसं - हमें ऐसा सब धन प्राप्त हो जिस से हमारे अंदर ब्राह्मण वृत्तियों की तेजस्विता और सामर्थ्य उत्पन्न हो Solar Energy
Word Meaning
सौर ऊर्जा से आवृत (समस्त सौर ऊर्जा का) दक्षिणां - दाहिने हाथ में स्थित कार्य कुशलता और परिश्रम से हमें ऐसा सब धन प्राप्त हो जिस से हमारे अंदर ब्राह्मण वृत्तियों की तेजस्विता और सामर्थ्य उत्पन्न हो
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