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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 15
    ऋषिः - सिन्धुद्वीपः देवता - आपः, चन्द्रमाः छन्दः - चतुरवसाना दशपदा त्रैष्टुभगर्भातिधृतिः सूक्तम् - विजय प्राप्ति सूक्त
    65

    यो व॑ आपो॒ऽपां भा॒गो॒प्स्व॒न्तर्य॑जु॒ष्यो देव॒यज॑नः। इ॒दं तमति॑ सृजामि॒ तं माभ्यव॑निक्षि। तेन॒ तम॒भ्यति॑सृजामो॒ यो॒स्मान्द्वेष्टि॒ यं व॒यं द्वि॒ष्मः। तं व॑धेयं॒ तं स्तृ॑षीया॒नेन॒ ब्रह्म॑णा॒नेन॒ कर्म॑णा॒नया॑ मे॒न्या ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । व॒: । आ॒प॒: । अ॒पाम् । भा॒ग: । अ॒प्ऽसु । अ॒न्त: । य॒जु॒ष्य᳡: । दे॒व॒ऽयज॑न: । इ॒दम् । तम् । अति॑ । सृ॒जा॒मि॒ । तम् । मा । अ॒भि॒ऽअव॑निक्षि । तेन॑ । तम् । अ॒भि॒ऽअति॑सृजाम: । य: । अ॒स्मान् । द्वेष्टि॑ । यम् । व॒यम् । द्वि॒ष्म: । तम् । व॒धे॒य॒म् । तम् । स्तृ॒षी॒य॒ । अ॒नेन॑ । ब्रह्म॑णा । अ॒नेन॑ । कर्म॑णा । अ॒नया॑ । मे॒न्या ॥५.१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो व आपोऽपां भागोप्स्वन्तर्यजुष्यो देवयजनः। इदं तमति सृजामि तं माभ्यवनिक्षि। तेन तमभ्यतिसृजामो योस्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः। तं वधेयं तं स्तृषीयानेन ब्रह्मणानेन कर्मणानया मेन्या ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । व: । आप: । अपाम् । भाग: । अप्ऽसु । अन्त: । यजुष्य: । देवऽयजन: । इदम् । तम् । अति । सृजामि । तम् । मा । अभिऽअवनिक्षि । तेन । तम् । अभिऽअतिसृजाम: । य: । अस्मान् । द्वेष्टि । यम् । वयम् । द्विष्म: । तम् । वधेयम् । तम् । स्तृषीय । अनेन । ब्रह्मणा । अनेन । कर्मणा । अनया । मेन्या ॥५.१५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 5; मन्त्र » 15
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    विद्वानों के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (आपः) हे विद्वानो ! (यः) जो (वः अपाम्) तुम विद्वानों का (भागः) अंश (अप्सु अन्तः) विद्वानों के बीच (यजुष्यः) पूजायोग्य और (देवयजनः) विद्वानों करके संगतियोग्य है। (इदम्) अब (तम्) उस [तुम्हारे पूजनीय अंश] को (अति) आदरपूर्वक (सृजामि) मैं सिद्ध करता हूँ, (तम्) उस [अंश] को (मा अभ्यवनिक्षि) मैं न धो डालूँ [न नष्ट करूँ]। (तेन) उस [पूजनीय अंश] से (तम्) उस [शत्रु] को (अभ्यतिसृजामः) हम हराकर छोड़ते हैं, (यः) जो (अस्मान्) हम से (द्वेष्टि) कुप्रीति करता है और (यम्) जिससे (वयम्) हम (द्विष्मः) कुप्रीति करते हैं। (अनेन ब्रह्मणा) इस वेदज्ञान से, (अनेन कर्मणा) इस कर्म से और (अनया मेन्या) इस वज्र से (तम्) उस [दुष्ट] को (वधेयम्) मैं मारूँ और (तम्) उसको (स्तृषीय) मैं ढक लूँ ॥१५॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को योग्य है कि दृढ़तापूर्वक विद्वानों से उत्तम शिक्षा ग्रहण करके और उनके उपकारों पर पानी न फेर कर वेदविद्या द्वारा बाहिरी और भीतरी शत्रुओं का नाश करें ॥१५॥

    टिप्पणी

    १५−(यः) (वः) युष्माकम् (आपः) म० ६। हे विद्वांसः (अपाम्) म० ६। विदुषाम् (भागः) अंशः (अप्सु) विद्वत्सु (अन्तः) मध्ये (यजुष्यः) यजुष्-यत्। पूजार्हः (देवयजनः) विद्वद्भिः संगन्तव्यः (इदम्) इदानीम् (तम्) भागम् (अति) पूजायाम् (सृजामि) निष्पादयामि (मा अभ्यवनिक्षि) णिजिर् शौचपोषणयोः−लुङ्। मा अभितोऽवशोधयामि। न विनाशयामि (तेन) भागेन (तम्) शत्रुम् (अभ्यतिसृजामः) अभिभूय सर्वतो त्यजामः। वशीकुर्मः (यः) अप्रीतिं कुर्मः (तम्) (वधेयम्) वध हिंसायाम्-लिङ्। अहं हन्याम् (तम्) (स्तृषीय) स्तृञ् आच्छादने-आ० लिङ्। आच्छादितं क्रियासम् (अनेन) (ब्रह्मणा) वेदज्ञानेन (अनेन) (कर्मणा) (अनया) (मेन्या) अ० २।१–१।१। वज्रेण ॥

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    विषय

    रेतःकणों का महत्त्व

    पदार्थ

    १. हे (आप:) = रेत:कणो! (य:) = जो (व:) = आपका (अपाम्) = प्रजाओं का (भाग:) = पूजन [भज सेवायाम्] है, अर्थात् आपके रक्षण से प्रजाओं के अन्दर जो प्रभु-पूजन का भाव उत्पन्न होता है, इसी प्रकार जो (अपाम् ऊर्मि:) = प्रजाओं का प्रकाश है [उर्मि light], आपके रक्षण से जो प्रकाश उत्पन्न होता है। जो (अपां वत्स:) = [वदति] प्रजाओं का ज्ञान की बाणियों का उच्चारण है। (अपां वृषभ:) = प्रजाओं में सुखों का सेचन है [वृष् सेचने]। (अपां हिरण्यगर्भः) = प्रजाओं में ज्योति को धारण करना है। (अपां अश्मा) = प्रजाओं का पाषाण-तुल्य दृढ़-शरीर है, (पृश्नि:) = अंग प्रत्यंग में रसों का संस्पर्श है [संस्प्रष्टा रसान्-नि०२।१४] तथा (दिव्यः) = देववृत्तियों का जन्म है और अन्तत: (अपां अग्नयः) = प्रजाओं के अन्दर आगे बढ़ने की वृत्तियाँ हैं। ये सब (अप्सु अन्त:) = प्रजाओं के अन्दर (यजुष्य:) = यजुष्य हैं-यज्ञात्मकवृत्तियों को जन्म देने के लिए उत्तम है। ये सब बातें (देवयजन:) = उस देव के साथ-प्रभु के साथ मेल करानेवाली हैं। २. (अतः इदम्) [इदानीम्] = अब मैं (तम् उ) = उस रेत:कण [वीर्यशक्ति] को ही (अतिसजामि) = अतिशयेन अपने अन्दर उत्पन्न करता हूँ। (तं मा अभिअवनिक्षि) = उसका मैं सफाया न कर दूं-उसे अपने अन्दर सुरक्षित काँ[अवनिज् wipe off] (तेन) = उस वीर्यशक्ति के द्वारा (तम् अभि अतिसूजामः) = उसे अपने से दूर करते हैं [अतिसृज् part with] (यः) = जो (अस्मान् द्वेष्टि) = हम सबके प्रति अप्रीतिवाला है और (परिणामत: यं वयं द्विष्मः) = जिससे हम भी प्रीति नहीं कर सकते। (तम्) = उसे (अनेन बह्मणा) = इस ज्ञान के द्वारा (अनेन कर्मणा) = इस यज्ञादि कर्म के द्वारा तथा (अनया मेन्या) = इस उपासनारूप वज्र के द्वारा [मेनि:-मन्] (तं वधेयम्) = उस समाज-विद्विष्ट को समाप्त कर (दंतं स्तृषीय) = उसे नष्ट कर दूं [स्तृ to kill]।

    भावार्थ

    रेत:कणों के रक्षण से हममें 'उपासना के भाव, प्रकाश, ज्ञान की वाणियों का उच्चारण, सुख, ज्योति, दृढ रसमय दिव्यता व प्रगतिशीलता' की उत्पत्ति होती है, अत: रेत:कणों का रक्षण आवश्यक है। इससे द्वेषभाव भी विनष्ट हो जाता है।

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    भाषार्थ

    (आप:) हे आप्त प्रजाओ ! (वः) तुम्हारा (यः) जो (अपाम्) प्रजाओं सम्बन्धी (भागः) सेवनीय या भजनीय है, जो कि (अप्सु अन्तः) जो तुम्हारे हृदयान्तर्वर्ती जलों में विद्यमान है, (यजुष्यः) यजनीय तथा (देवयजनः) देवों अर्थात् साध्यों और ऋषियों द्वारा यजनीय है, (तम्) उस के प्रति (इदम्) इस शरीर या मन को (अतिसृजामि) मैं सम्राट् भेंट करता हूं, समर्पित करता हूं, [हे परमेश्वर !] (तम्, मा) उस मुझ सम्राट् को, (अभि अवनिक्षि) अभिमुख होकर, शुचि पवित्र कर। (तेन) उस शुचि, पवित्र सम्राट् की आज्ञा द्वारा (तम्) उस शत्रु-राजा को, (अभि) अभिमुख होकर, (अतिसृजामः) हम सैनिक विनष्ट करते हैं (यः) जो कि (अस्मान् द्वेष्टि) हमारे साथ द्वेष करता है, और (यम्) जिस के साथ, प्रतिक्रिया में, (वयम्, द्विष्मः) हम द्वेष करते हैं। अथवा (तम्) उस शत्रु-राजा का (वधेयम्) मैं सम्राट् स्वयं वध करू, (तम्) उस का (स्तृषीय) विनाश करूं, (अनेन ब्रह्मणा) इस मन्त्रोक्त विधि द्वारा, (अनेन कर्मणा) इस [द्वन्द्वयुद्धरूपी] कर्म द्वारा, या (अनया मेन्या) इस वज्र द्वारा।

    टिप्पणी

    [सम्राट्, निज, शरीर या मन को सेवनीय या भजनीय परमेश्वर के प्रति समर्पित कर, मन की पवित्रता की याचना करता है। ऐसे सम्राट् की आज्ञा द्वारा सैनिक, शत्रुराजा का विनाश करते हैं। अथवा सम्राट स्वयं उस का विनाश करता है। भागः= "भगः= + स्वार्थेऽण्" = भगरूप, परमेश्वर। देवयजनः = देवाः साध्या ऋषयश्च ये (यजु० ३१।९)। अतिसृजामि = अतिसर्जन (Giving, Granting (आप्टे)। अभि= आभिमुख्ये (निरुक्त० १।१।३)। अतिसृजामः= अतिसर्जन (Killing, आप्टे)। स्तृषीय= स्तृणाति वधकर्मा (निघं० २।१९)। मेन्या= मेनिः वज्रनाम (निघं० २।२०)। अप्सु अन्तः; आपः=हृदयसमुद्र और नाड़ियों में प्रवाहित रक्त (अथर्व० १०/२/११)। यजनः (औणादिकः युच् कर्मणि)। अवनिक्षि= अव+णिजिर् शौचपीषणयोः]।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Song of Victory

    Meaning

    O people, whatever is your Bhaga, share of the powers and obligations of state affairs in the business of governance and administration, loved by society and respected by the wise for its value, here I grant and entrust to you. Do not forsake that, nor must I neglect that, and thereby we take on whoever hates us and whoever we disapprove, and with this knowledge, through this process of law, and with this act of justice, we counter, cover and eliminate that element of hate and enmity.

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    Translation

    What of you, O waters, is the portion (bhāga) of water within the waters, useful or the sacrificial rites (Yajusya)and useful for the congregation of enlightened beings (gods or devas), that I present here. May I not dismiss or ignore him outright. That let me not wash down against myself (tammabhya-vaniksi). That we do not let go against him who hates us, or whom we hate, him may I slay, or stab, him may I bestrews (strsiya) with this prayer, (brahmaņā) with this act (karmaņā) with this weapon (menyā).

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    Translation

    O learned men! to him who is the embodiment of your virtues and actions among the people and is performer of yajna and server of enlightened persons, I, the priest entrust this Kingdom. Let not you dishonor him. By him we attack on him who hates us and whom we abhor. We overthrow and slay him through this Knowledge, through this act and through this fatal weapon.

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    Translation

    O learned persons, the King of ye subjects, living amongst you, is worthy of reverence and worship by godly persons. I hand over the administration of this State to him. May I never show him disrespect. With his help we invade the enemy who hates us and whom we abhor. Him would I fain overthrow and slay with this Vedic knowledge, with this heroic deed, and with this army!

    Footnote

    I: A Purohit, priest.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १५−(यः) (वः) युष्माकम् (आपः) म० ६। हे विद्वांसः (अपाम्) म० ६। विदुषाम् (भागः) अंशः (अप्सु) विद्वत्सु (अन्तः) मध्ये (यजुष्यः) यजुष्-यत्। पूजार्हः (देवयजनः) विद्वद्भिः संगन्तव्यः (इदम्) इदानीम् (तम्) भागम् (अति) पूजायाम् (सृजामि) निष्पादयामि (मा अभ्यवनिक्षि) णिजिर् शौचपोषणयोः−लुङ्। मा अभितोऽवशोधयामि। न विनाशयामि (तेन) भागेन (तम्) शत्रुम् (अभ्यतिसृजामः) अभिभूय सर्वतो त्यजामः। वशीकुर्मः (यः) अप्रीतिं कुर्मः (तम्) (वधेयम्) वध हिंसायाम्-लिङ्। अहं हन्याम् (तम्) (स्तृषीय) स्तृञ् आच्छादने-आ० लिङ्। आच्छादितं क्रियासम् (अनेन) (ब्रह्मणा) वेदज्ञानेन (अनेन) (कर्मणा) (अनया) (मेन्या) अ० २।१–१।१। वज्रेण ॥

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    हिंगलिश (1)

    Subject

    पर्यावरण और मानव

    Word Meaning

    (आप:) हे आप्त- अपवादहीन,अभ्यस्त, तर्क संगत, बुद्धिमान ,सत्याधारित प्रजा जनो – (व:) तुम्हारा (य:) जो (अपाम्‌) प्रजासम्बंधी – समस्त समाज से सम्बंधित (यजुष्य देवयजन:) ऋषियों द्वारा निर्देषित यज्ञादि कार्य करने की ( अप्सु अन्त:) तुम्हारे हृदय में संचार करनेवाले तत्वों की प्रेरणा | इदं तं अति सृजामि तं माभ्यवनिक्षि । (तम्‌) के द्वारा (इदम्‌) तुम्हारे शरीर और मन को (अतिसृजामि) समर्पित करता हूं (तम्‌ मा) वह तुम्हारे (अभि अवनिक्षि) आचरण को पवित्र करे | तेन तं अभ्यतिसृजामो योऽस्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः । (तेन तम्‌) उस पवित्र आचरण से (अभि अतिसृजाम:) अपने आंतरिक शत्रुओं पर विजयी हो कर (योऽस्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः) जो हम से द्वेष करते हैं और हम जिन से द्वेष करते हैं उन पर विजय पाएं | तं वधेयं तं स्तृषीयानेन ब्रह्मणानेन कर्मणानया मेन्या | (अनेन ब्रह्मणा) इस वेद ज्ञान (अनेन कर्मणा) पर आधारित कर्मकाण्ड (अनया मेन्या) के वज्र द्वारा (तं वधेयं ) उन शत्रुओं का वध करें (तं स्तृषीय) उन का विनाश करें |

    Tika / Tippani

    भाग:- उत्तम सेवनीय उपल्ब्धियां और दायित्व हे आप्त- अपवादहीन,अभ्यस्त, तर्क संगत, बुद्धिमान ,सत्याधारित प्रजा जनो तुम्हारे जो उत्तम सेवनीय उपल्ब्धियां और दायित्व हैं उन्हें ऋषियों द्वारा निर्देषित यज्ञादि कार्य करने की तुम्हारे हृदय में संचार करने वाले तत्वों से प्रेरणा द्वारा | उस के प्रति तुम्हारे शरीर और मन को समर्पित करता हूं | सद्‌बुद्धि तुम्हारे आचरण को पवित्र करे | उस पवित्र आचरण से अपने आंतरिक शत्रुओं पर विजयी हो कर जो हम से द्वेष करते हैं और हम जिन से द्वेष करते हैं उन पर विजय पाएं | इस वेद ज्ञान पर आधारित कर्मकाण्ड के वज्र द्वारा उन शत्रुओं का वध करें उन का विनाश करें |

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