अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 5/ मन्त्र 45
सूक्त - सिन्धुद्वीपः
देवता - प्रजापतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - विजय प्राप्ति सूक्त
यत्ते॒ अन्नं॑ भुवस्पत आक्षि॒यति॑ पृथि॒वीमनु॑। तस्य॑ न॒स्त्वं भु॑वस्पते सं॒प्रय॑च्छ प्रजापते ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । ते॒ । अन्न॑म् । भु॒व॒: । प॒ते॒ । आ॒ऽक्षि॒यति॑ । पृ॒थि॒वीम् । अनु॑ । तस्य॑ । न॒: । त्वम् । भु॒व॒: । प॒ते॒ । स॒म्ऽप्रय॑च्छ । प्र॒जा॒ऽप॒ते॒ ॥५.४५॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्ते अन्नं भुवस्पत आक्षियति पृथिवीमनु। तस्य नस्त्वं भुवस्पते संप्रयच्छ प्रजापते ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । ते । अन्नम् । भुव: । पते । आऽक्षियति । पृथिवीम् । अनु । तस्य । न: । त्वम् । भुव: । पते । सम्ऽप्रयच्छ । प्रजाऽपते ॥५.४५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 5; मन्त्र » 45
विषय - अन्न का ही सेवन
पदार्थ -
१. हे (भुवस्पते) = इस पृथिवी के स्वामिन प्रभो! (यत् ते अन्नम्) = जो आपका यह अन्न (प्रथिवीं अनु आक्षियति) = पृथिवी पर चारों ओर निवास करता है, अर्थात् इस पृथिवी से उत्पन्न होता है, हे (भुवस्पते) = पृथिवी के स्वामिन् ! (प्रजापते) = प्रजाओं के रक्षक प्रभो! (तस्य) = उस अन्न के अंश को (त्वं) = आप (नः संप्रयच्छ) = हमारे लिए दीजिए।
भावार्थ -
हम प्रभुकृपा से इस पृथिवी से उत्पन्न होनेवाले अन्न को प्राप्त करें और उसके द्वारा प्राणों का धारण करें।
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