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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 10/ मन्त्र 14
    सूक्त - भृग्वङ्गिराः देवता - त्रिषन्धिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    सर्वे॑ दे॒वा अ॒त्याय॑न्ति॒ ये अ॒श्नन्ति॒ वष॑ट्कृतम्। इ॒मां जु॑षध्व॒माहु॑तिमि॒तो ज॑यत॒ मामुतः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सर्वे॑ । दे॒वा: । अ॒ति॒ऽआय॑न्ति । ये । अ॒श्नन्ति॑ । वष॑ट्ऽकृतम् । इ॒माम् । जु॒ष॒ध्व॒म् । आऽहु॑तिम् । इ॒त: । ज॒य॒त॒ । मा । अ॒मुत॑: ॥१२.१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सर्वे देवा अत्यायन्ति ये अश्नन्ति वषट्कृतम्। इमां जुषध्वमाहुतिमितो जयत मामुतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सर्वे । देवा: । अतिऽआयन्ति । ये । अश्नन्ति । वषट्ऽकृतम् । इमाम् । जुषध्वम् । आऽहुतिम् । इत: । जयत । मा । अमुत: ॥१२.१४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 10; मन्त्र » 14

    पदार्थ -

    १. (ये) = जो (वषट्कृतम्) = यज्ञ में वषट्शब्दोच्चारण पूर्वक आहुत किये हुए यज्ञशेष को ही (अश्नन्ति) = खाते हैं, वे (सर्वे) = सब (देवाः) = देववृत्ति के व्यक्ति (अत्यायन्ति) = काम-क्रोध आदि शत्रुओं का अतिक्रमण करके प्रभु के सम्मुख उपस्थित होते हैं। २. इसलिए हे समझदार पुरुषो! (इमां आहुतिं जुषध्वम्) = इस आहुति का सेवन करनेवाले बनो। इस यज्ञशीलता के द्वारा (इत: जयत) = इधर से विजय प्राप्त करो, अर्थात् शरीरस्थ शत्रुओं को जीतने में समर्थ होओ। (मा अमुत:) = दूर से बाहर से विजय करनेवाले ही न बनो। बाह्यशत्रुओं को जीतने का वह महत्त्व नहीं, जोकि अन्त:शत्रुओं को जीतने का महत्त्व है।

    भावार्थ -

    हम यज्ञशील बनकर अन्तः शत्रुओं के विजेता बनें । बाह्यशत्रुओं के विजय से ही अपने को कृतकृत्य न मान बैठे।

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