अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 10/ मन्त्र 7
सूक्त - भृग्वङ्गिराः
देवता - त्रिषन्धिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
धू॑मा॒क्षी सं प॑ततु कृधुक॒र्णी च॑ क्रोशतु। त्रिष॑न्धेः॒ सेन॑या जि॒ते अ॑रु॒णाः स॑न्तु के॒तवः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठधू॒म॒ऽअ॒क्षी: । सम् । प॒त॒तु॒ । कृ॒धु॒ऽक॒र्णी । च॒ । क्रो॒श॒तु॒ । त्रिऽसं॑धे: । सेन॑या । जि॒ते । अ॒रु॒णा: । स॒न्तु॒ । के॒तव॑: ॥१२.७॥
स्वर रहित मन्त्र
धूमाक्षी सं पततु कृधुकर्णी च क्रोशतु। त्रिषन्धेः सेनया जिते अरुणाः सन्तु केतवः ॥
स्वर रहित पद पाठधूमऽअक्षी: । सम् । पततु । कृधुऽकर्णी । च । क्रोशतु । त्रिऽसंधे: । सेनया । जिते । अरुणा: । सन्तु । केतव: ॥१२.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 10; मन्त्र » 7
विषय - धूमाक्षी कृधुकर्णी
पदार्थ -
१. धूमाक्षी-आग्नेयास्त्रों के धुएँ से आवृत आँखोंवाली, (कृधुकर्णी च) = और पटहध्वनि से हतश्श्रवण सामर्थ्यवाली [अल्पश्रोत्रा] परकीया सेना क्रोशतु-किंकर्तव्यतामूढ़ बनी हुई आक्रोश करे । २. इसप्रकार (त्रिषन्धे:) = 'जल स्थल व वायुसेना' के सेनापति की (सेनया) = सेना के द्वारा जिते-शत्रु को जीत लेने पर (अरुणा: केतवः सन्तु) = हमारी अरुण वर्ण की पताकाएँ फहराएँ। हमारी विजयसूचक अरुणवर्ण की पताकाएँ आकाश में फहराएँ।
भावार्थ -
शत्रसेना हमारे आग्नेयास्त्रों के धूम से व्याकुल आँखोंवाली व युद्ध-बाध की ध्वनि से विनष्ट श्रवण सामर्थ्यवाली होकर चीखें व चिलाएँ। हमारी अरुण वर्ण की विजय-पताकाएँ आकाश में फहराएँ।
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