अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 10/ मन्त्र 15
सूक्त - भृग्वङ्गिराः
देवता - त्रिषन्धिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
सर्वे॑ देवा अ॒त्याय॑न्तु॒ त्रिष॑न्धे॒राहु॑तिः प्रि॒या। सं॒धां म॑ह॒तीं र॑क्षत॒ ययाग्रे॒ असु॑रा जि॒ताः ॥
स्वर सहित पद पाठसर्वे॑ । दे॒वा: । अ॒ति॒ऽआय॑न्तु । त्रिऽसं॑धे: । आऽहु॑ति: । प्रि॒या । स॒म्ऽधाम् । म॒ह॒तीम् । र॒क्ष॒त॒ । यया॑ । अग्रे॑ । असु॑रा: । जि॒ता: ॥१२.१५॥
स्वर रहित मन्त्र
सर्वे देवा अत्यायन्तु त्रिषन्धेराहुतिः प्रिया। संधां महतीं रक्षत ययाग्रे असुरा जिताः ॥
स्वर रहित पद पाठसर्वे । देवा: । अतिऽआयन्तु । त्रिऽसंधे: । आऽहुति: । प्रिया । सम्ऽधाम् । महतीम् । रक्षत । यया । अग्रे । असुरा: । जिता: ॥१२.१५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 10; मन्त्र » 15
विषय - महती सन्धा
पदार्थ -
१. (सर्वे देवा:) = सब विजिगीषु पुरुष (अति आयन्तु) = काम, क्रोध आदि को लाँधकर प्रभु के समीप प्राप्त हों। (त्रिषन्धे:) = 'जल, स्थल व वायु सेना के सेनापति की (आहुति:) = देशरक्षा के यज्ञ में दी गई प्राणों की आहुति (प्रिया) = प्रीति का सम्पादन करनेवाली है। 'तन-मन-धन' की आहुति देकर ही व्यक्ति मनुष्यों का व प्रभु का प्रिय बनता है। २. (महती संधाम) = सर्वमहान् प्रतिज्ञा को कि ('यदि योन्याः प्रमुच्येऽहं तत्प्रपद्ये महेश्वरम्') = अब की बार संसार में आने पर अवश्य प्रभु की शरण में आऊँगा' गर्भावस्था में की गई इस सर्वमहान् प्रतिज्ञा को रक्षित करो। इस प्रतिज्ञा का पालन करते हुए, तुम इस बात को न भूलना कि यही वह महती संधा है (यया) = जिसके द्वारा (अग्रे) = सर्वप्रथम (असुराः जिता:) = देवों द्वारा असुरों का पराजय किया गया।
भावार्थ -
हम तन, मन, धन की लोकहित के यज्ञ में आहुति देते हुए प्रभु को प्राप्त करें। इस आहुति से ही तो प्रभु को प्राप्त करने के लिए देव, असुरों का पराजय करते हैं।
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