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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 10/ मन्त्र 19
    सूक्त - भृग्वङ्गिराः देवता - त्रिषन्धिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    त्रिष॑न्धे॒ तम॑सा॒ त्वम॒मित्रा॒न्परि॑ वारय। पृ॑षदा॒ज्यप्र॑णुत्तानां॒ मामीषां॑ मोचि॒ कश्च॒न ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्रिऽसं॑धे । तम॑सा । त्वम् । अ॒मित्रा॑न् । परि॑ । वा॒र॒य॒ । पृ॒ष॒दा॒ज्यऽप्र॑नुत्तानाम् । मा । अ॒मीषा॑म् । मो॒चि॒ । क: । च॒न ॥१२.१९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्रिषन्धे तमसा त्वममित्रान्परि वारय। पृषदाज्यप्रणुत्तानां मामीषां मोचि कश्चन ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्रिऽसंधे । तमसा । त्वम् । अमित्रान् । परि । वारय । पृषदाज्यऽप्रनुत्तानाम् । मा । अमीषाम् । मोचि । क: । चन ॥१२.१९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 10; मन्त्र » 19

    पदार्थ -

    १. (त्रिषन्धे) = हे 'जल, स्थल व वायु सेना का सन्धान करनेवाले सेनापते ! (त्वम्) = तू (तमसा) = धूम्रास्त्र द्वारा उत्पन्न किये गये अन्धकार से (अमित्रान् परिवारय) = शत्रुओं को घेर ले। शत्रु चारों ओर अन्धकार-ही-अन्धकार में होते हुए किंकर्तव्यमूढ़-से बन जाएँ। २. (पृषद् आग्य प्रणुत्तानाम्) = [पृष to kill आज्य-अंज् togo] विनाशकारी आक्रमण [धावे] से परे धकेले हुए (अमीषाम) = उन शत्रुओं में (कश्चन मा मोचि) = कोई भी छूटे नहीं। सब शत्रुओं का सफाया ही कर दिया जाए।

    भावार्थ -

    त्रिपन्धि को चाहिए कि वह शत्रुसैन्य को, अन्धकार-ही-अन्धकार में करके, विनाशक आक्रमण द्वारा समाप्त कर दे।

     

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