अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 10/ मन्त्र 26
सूक्त - भृग्वङ्गिराः
देवता - त्रिषन्धिः
छन्दः - प्रस्तारपङ्क्तिः
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
म॑र्मा॒विधं॒ रोरु॑वतं सुप॒र्णैर॒दन्तु॑ दु॒श्चितं॑ मृदि॒तं शया॑नम्। य इ॒मां प्र॒तीची॒माहु॑तिम॒मित्रो॑ नो॒ युयु॑त्सति ॥
स्वर सहित पद पाठम॒र्मा॒विध॑म् । रोरु॑वतम् । सु॒ऽप॒र्णै: । अ॒दन्तु॑ । दु॒:ऽचित॑म् । मृ॒दि॒तम् । शया॑नम् । य: । इ॒माम् । प्र॒तीची॑म् । आऽहु॑तिम् । अ॒मित्र॑: । न॒: । युयु॑त्सति ॥१२.२६॥
स्वर रहित मन्त्र
मर्माविधं रोरुवतं सुपर्णैरदन्तु दुश्चितं मृदितं शयानम्। य इमां प्रतीचीमाहुतिममित्रो नो युयुत्सति ॥
स्वर रहित पद पाठमर्माविधम् । रोरुवतम् । सुऽपर्णै: । अदन्तु । दु:ऽचितम् । मृदितम् । शयानम् । य: । इमाम् । प्रतीचीम् । आऽहुतिम् । अमित्र: । न: । युयुत्सति ॥१२.२६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 10; मन्त्र » 26
विषय - शत्रु का 'मर्माहत व धराशायी' होना
पदार्थ -
१. (य:) = जो (अमित्र:) = शत्रु (न:) = हमारी (इमाम्) = इस (प्रतीचीम्) = शत्रु के अभिमुख जाती हुई (आहुतिम्) = युद्धयज्ञ में डाली गई बाण-प्रक्षेपरूप आहुति को [हु दाने] (युयुत्सति) = युद्ध करने के लिए चाहता है, अर्थात् जो हमारे आक्रमण को रोकने का प्रयन करता है, उस शत्रु को (अदन्तु) = गिद्ध आदि पक्षी खानेवाले बनें । २. उस शत्रु को, जोकि (सुपणैः) = शोभनपतन शरों से (मर्माविधम्) = मर्मस्थलों में विद्ध हुआ है, (दुश्चितम्) = [दुःखैः पूरितम्] दु:खों से जिसका हृदय भरा हुआ है-जिसे चारों ओर संकट-ही-संकट दीखता है-अतएव (रोरुवतम्) = अतिशयेन विलाप कर रहा है, (मृदितम्) = जो युद्ध में चूर्णीभूत [पिसा-हुआ] हो गया है, और (शयानम्) = भूमि पर लेट गया है-धराशायी हो गया है, ऐसे शत्रु को गिद्ध आदि पक्षी खा जाएँ।
भावार्थ -
जो हमारे शरप्रक्षेप के विरोध में युद्ध करना चाहता है, वह मर्माहत होकर धराशायी हो जाए और गिद्धों का भोजन बने।
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