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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 10 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 26
    ऋषिः - भृग्वङ्गिराः देवता - त्रिषन्धिः छन्दः - प्रस्तारपङ्क्तिः सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
    42

    म॑र्मा॒विधं॒ रोरु॑वतं सुप॒र्णैर॒दन्तु॑ दु॒श्चितं॑ मृदि॒तं शया॑नम्। य इ॒मां प्र॒तीची॒माहु॑तिम॒मित्रो॑ नो॒ युयु॑त्सति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒र्मा॒विध॑म् । रोरु॑वतम् । सु॒ऽप॒र्णै: । अ॒दन्तु॑ । दु॒:ऽचित॑म् । मृ॒दि॒तम् । शया॑नम् । य: । इ॒माम् । प्र॒तीची॑म् । आऽहु॑तिम् । अ॒मित्र॑: । न॒: । युयु॑त्सति ॥१२.२६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मर्माविधं रोरुवतं सुपर्णैरदन्तु दुश्चितं मृदितं शयानम्। य इमां प्रतीचीमाहुतिममित्रो नो युयुत्सति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मर्माविधम् । रोरुवतम् । सुऽपर्णै: । अदन्तु । दु:ऽचितम् । मृदितम् । शयानम् । य: । इमाम् । प्रतीचीम् । आऽहुतिम् । अमित्र: । न: । युयुत्सति ॥१२.२६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 10; मन्त्र » 26
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (सुपर्णैः=सुपर्णाः) शीघ्रगामी पक्षी [गिद्ध आदि] (मर्माविधम्) मर्मस्थानों में छिदे हुए, (रोरुवतम्) चिल्लाते हुए (मृदितम्) कुचले हुए, (शयानम्) पड़े हुए, (दुश्चितम्) उस दुष्ट विचारवाले को (अदन्तु) खावें। (यः) जो (अमित्रः) शत्रु (नः) हमारी (इमाम्) इस (प्रतीचीम्) प्रत्यक्ष प्राप्त हुई (आहुतिम्) आहुति [बलि वा भेंट] (युयुत्सति) झगड़ना चाहता है ॥२६॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य प्रत्यक्ष सत्य धर्म के विरुद्ध आचरण करें, वे युद्धस्थल में वध किये जावें, जिससे अन्य दुष्ट दुराचार न करें ॥२६॥

    टिप्पणी

    २६−(मर्माविधम्) व्यध ताडने-कर्मणि क्विप्। ग्रहिज्यावयिव्यधि०। पा० ६।१।१६। इति सम्प्रसारणम्। नहिवृतिवृषिव्यधि०। पा० ६।३।११६। पूर्वपदस्य दीर्घः क्विप्रत्यये। मर्मसु विध्यमानम् (रोरुवतम्) रु शब्दे-यङ्लुकि-शतृ। रोरूयमाणम्। अत्यन्तं शब्दायमानम् (सुपर्णैः) सुपां सुपो भवन्ति। वा। पा० ७।१।३९। प्रथमास्थाने तृतीया। सुपर्णाः। शीघ्रगामिनः पक्षिणः। गृध्रादयः (अदन्तु) (दुश्चितम्) चिती संज्ञाने-क्विप्। दुष्टा चित् ज्ञानं यस्य तम्। दुष्टविचारयुक्तम् (मृदितम्) चूर्णीकृतम् (शयानम्) भूमौ वर्तमानम् (यः) (इमाम्) (प्रतीचीम्) अ० ३।२६।३। प्रति+अञ्चु गतिपूजनयोः-क्विन्, ङीप्। प्रत्यक्षमञ्चन्तीं गच्छन्तीम् (आहुतिम्) दानक्रियाम् (अमित्रः) शत्रुः (नः) अस्माकम् (युयुत्सति) योद्धुमिच्छति ॥

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    विषय

    शत्रु का 'मर्माहत व धराशायी' होना

    पदार्थ

    १. (य:) = जो (अमित्र:) = शत्रु (न:) = हमारी (इमाम्) = इस (प्रतीचीम्) = शत्रु के अभिमुख जाती हुई (आहुतिम्) = युद्धयज्ञ में डाली गई बाण-प्रक्षेपरूप आहुति को [हु दाने] (युयुत्सति) = युद्ध करने के लिए चाहता है, अर्थात् जो हमारे आक्रमण को रोकने का प्रयन करता है, उस शत्रु को (अदन्तु) = गिद्ध आदि पक्षी खानेवाले बनें । २. उस शत्रु को, जोकि (सुपणैः) = शोभनपतन शरों से (मर्माविधम्) = मर्मस्थलों में विद्ध हुआ है, (दुश्चितम्) = [दुःखैः पूरितम्] दु:खों से जिसका हृदय भरा हुआ है-जिसे चारों ओर संकट-ही-संकट दीखता है-अतएव (रोरुवतम्) = अतिशयेन विलाप कर रहा है, (मृदितम्) = जो युद्ध में चूर्णीभूत [पिसा-हुआ] हो गया है, और (शयानम्) = भूमि पर लेट गया है-धराशायी हो गया है, ऐसे शत्रु को गिद्ध आदि पक्षी खा जाएँ।

    भावार्थ

    जो हमारे शरप्रक्षेप के विरोध में युद्ध करना चाहता है, वह मर्माहत होकर धराशायी हो जाए और गिद्धों का भोजन बने।

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    भाषार्थ

    (सुपर्णैः) उत्तम प्रकार से पतन करने वाले अर्थात् शत्रुदल पर गिरने वाले बाणों द्वारा (मर्माविधम्) मर्म स्थलों में सर्वत्र बींधे गए, (रोरुवतम्) इसलिये रोते-चिल्लाते हुए, (दुश्चितम्) दुःखों से भरे हुए, या दुःखी चित्तों वाले (मृदितम्) कुचले हुए, (शयानम्) युद्धभूमि में शयन किये हुए शत्रु दल को, (अदन्तु) गृध आदि पक्षी (२४) खाएं, (य: अमित्रः) जो शत्रुदल कि (नः) हमारी (इमाम्, प्रतीचीम्,आहुतिम्) इस शत्रु दल के "प्रति-जाने-वाली"१ आहुति के साथ (युयुत्सति) युद्ध करना चाहता है।

    टिप्पणी

    [मर्माविधम् = मर्मा ("नहिवृतिवृषिवृधि"- अष्टा० ६।३।११६) द्वारा दीर्घ; तथा "ग्रहिज्यावयिव्यधि"- अष्टा० (६।१।१६) द्वारा विधम् (सम्प्रसारण)। विध्यते इति विधम् (कर्मणि क्विप्) अथवा मर्म +आविधाम् प्रतीचीम् = शत्रुं प्रति अञ्चन्तीम्।]

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    विषय

    शत्रुसेना का विजय।

    भावार्थ

    (यः) जो (अमित्रः) शत्रु (इमाम्) इस (नः) हमारी (प्रतीचीम्) शत्रु के अभिमुख वेग से जाती (आहुतिम्) आहुति-युद्धा, हुति के विरुद्ध (युयुत्सति) लड़ना चाहता है हमारी आज्ञा का विघात करना चाहता है, वह (सुपर्णैः) अति वेगदान् बाणों से (मर्माविधम्) मर्म अर्थात् शरीर के कोमल मर्मस्थानों पर मारा जाकर (रोरुवतम्) रोते, कराहते (दुश्चितम्) दुःख में पड़े, बदहवास (मृदितम्) कुटे पिटे, (शयानम्) भूमि पर पड़े शत्रु को (अदन्तु) कुत्ते, सियार, कौए और चील खावें।

    टिप्पणी

    ‘सुपर्णाः अदन्तु’ इति ह्विटनिकामितः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृग्वङ्गिरा ऋषिः। मन्त्रोक्तस्त्रिषन्धिर्देवता। १ विराट् पथ्याबृहती, २ त्र्यवसाना षट्पा त्रिष्टुब्गर्भाति जगती, ३ विराड् आस्तार पंक्तिः, ४ विराट् त्रिष्टुप् पुरो विराट पुरस्ताज्ज्योतिस्त्रिष्टुप्, १२ पञ्चपदा पथ्यापंक्तिः, १३ षट्पदा जगती, १६ त्र्यवसाना षट्पदा ककुम्मती अनुष्टुप् त्रिष्टुब् गर्भा शक्वरी, १७ पथ्यापंक्तिः, २१ त्रिपदा गायत्री, २२ विराट् पुरस्ताद बृहती, २५ ककुप्, २६ प्रस्तारपंक्तिः, ६-११, १४, १५, १८-२०, २३, २४, २७ अनुष्टुभः। सप्तविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (मर्माविधं रोरुवतम्) मर्मस्थानों में विद्ध-आघात पाए हुए अत्यन्त चिल्लाते हुए (दुश्चितं मृदितम्) दुःख से पूर्णमदित चूर चूर हुए (शयानम्) भूमि पर सोये जैसे मरे से पडे प्रधान शत्रु को (सुपः-अदन्तु) पक्षी खा लेवें "सुपर्णैः, सुपर्णा:-विभक्तिव्यत्ययः" ( यः अमित्र:) जो शत्रु राजा (नः) हमारी (इमाम्-आहुतिम्) इस त्रिषन्धि स्फोटक स्वरूप संग्राम यज्ञ में फेंकी आहुति को (प्रतीचीं युयुत्सति) उलटी करने को उलटा देने को युद्ध करना चाहता है ॥६॥

    विशेष

    ऋषिः-भृग्वङ्गिराः (भर्जनशील अग्निप्रयोगवेत्ता) देवता – त्रिषन्धिः ( गन्धक, मनः शिल, स्फोट पदार्थों का अस्त्र )

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    War, Victory and Peace

    Meaning

    Birds of prey would feed upon the force of violence hit in the vitals, wailing, at heart afflicted, crushed, asleep in death, the force that wanted to fight this self-sacrificing army of ours ready to face the enemy.

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    Translation

    Let the eagles (supama) eat him, pierced to the vitals, crying, loudly, lying crushed, the evil-minded one - what enemy of ours whishes to fight against this opposing offering.

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    Translation

    Let the beasts of prey eat him pierced through vital parts with shafts, crushed, crying boweing and weaping, who amongst our foemen desires to fight against our slaughtering army advancing forward.

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    Translation

    Let eagles eat the evil-hearted, pierced in the vitals, lying crushed and howling, the foe whoe'er will fight against this our war strategy.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २६−(मर्माविधम्) व्यध ताडने-कर्मणि क्विप्। ग्रहिज्यावयिव्यधि०। पा० ६।१।१६। इति सम्प्रसारणम्। नहिवृतिवृषिव्यधि०। पा० ६।३।११६। पूर्वपदस्य दीर्घः क्विप्रत्यये। मर्मसु विध्यमानम् (रोरुवतम्) रु शब्दे-यङ्लुकि-शतृ। रोरूयमाणम्। अत्यन्तं शब्दायमानम् (सुपर्णैः) सुपां सुपो भवन्ति। वा। पा० ७।१।३९। प्रथमास्थाने तृतीया। सुपर्णाः। शीघ्रगामिनः पक्षिणः। गृध्रादयः (अदन्तु) (दुश्चितम्) चिती संज्ञाने-क्विप्। दुष्टा चित् ज्ञानं यस्य तम्। दुष्टविचारयुक्तम् (मृदितम्) चूर्णीकृतम् (शयानम्) भूमौ वर्तमानम् (यः) (इमाम्) (प्रतीचीम्) अ० ३।२६।३। प्रति+अञ्चु गतिपूजनयोः-क्विन्, ङीप्। प्रत्यक्षमञ्चन्तीं गच्छन्तीम् (आहुतिम्) दानक्रियाम् (अमित्रः) शत्रुः (नः) अस्माकम् (युयुत्सति) योद्धुमिच्छति ॥

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