अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 6
ऋषिः - भृग्वङ्गिराः
देवता - त्रिषन्धिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
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शि॑तिप॒दी सं द्य॑तु शर॒व्ये॒यं चतु॑ष्पदी। कृत्ये॒ऽमित्रे॑भ्यो भव॒ त्रिष॑न्धेः स॒ह सेन॑या ॥
स्वर सहित पद पाठशि॒ति॒ऽप॒दी । सम् । द्य॒तु॒ । श॒र॒व्या᳡ । इ॒यम् । चतु॑:ऽपदी । कृत्ये॑ । अ॒मित्रे॑भ्य: । भ॒व॒ । त्रिऽसं॑धे: । स॒ह । सेन॑या ॥१२.६॥
स्वर रहित मन्त्र
शितिपदी सं द्यतु शरव्येयं चतुष्पदी। कृत्येऽमित्रेभ्यो भव त्रिषन्धेः सह सेनया ॥
स्वर रहित पद पाठशितिऽपदी । सम् । द्यतु । शरव्या । इयम् । चतु:ऽपदी । कृत्ये । अमित्रेभ्य: । भव । त्रिऽसंधे: । सह । सेनया ॥१२.६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(शितिपदा) उजाले और अंधेरे में गतिवाली (चतुष्पदी) चारों [धर्म अर्थ काम मोक्ष] में अधिकारवाली (इयम्) यह (शरव्या) बाण-विद्या में चतुर [सेना] (संद्यतु) [शत्रुओं को] काट डाले। (कृत्ये) हे छेदनशील [सेना] ! (त्रिषन्धेः) त्रिसन्धि [म० २। त्रयीकुशल, सेनापति] की (सेनया सह) सेना के साथ (अमित्रेभ्यः) शत्रुओं के मारने को (भव) वर्तमान हो ॥६॥
भावार्थ
सब वीरसेनाएँ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति के लिये प्रधान सेनापति के आधिपत्य में मिलकर शत्रुओं को जीतें ॥६॥
टिप्पणी
६−(शितिपदी) अ० ३।२९।१। कुम्भपदीषु च। पा० ५।४।१३९। पादस्य लोपो ङीप् च। पादः पत्। पा० ६।३।१३०। पदादेशः। शितिः शुक्लः कृष्णश्च तयोर्मध्ये पादो गमनं तस्याः सा तथाभूता। प्रकाशान्धकारमध्यगतिशीला सेना (सम्) सम्यक् (द्यतु) दो अवखण्डने। छिनत्तु (शरव्या) अ० ३।१९।८। तत्र साधुः। पा० ४।४।९८। शरु-यत्। शरौ वाणविद्यायां कुशला (इयम्) (चतुष्पदी) अ० ९।१०।२१। चतुर्वर्गे धर्मार्थकाममोक्षेषु पुरुषार्थेषु पदमधिकारो यस्याः सा (कृत्ये) अ० ४।९।५। ऋदुपधाच्चाक्लृपिचृतेः। पा० ३।१।११०। कृती छेदने-क्यप्। हे छेदनशीले। (अमित्रेभ्यः) क्रियार्थोपपदस्य च कर्मणि स्थानिनः। पा० २।३।१४। इति चतुर्थी। शत्रून् नाशयितुम् (भव) वर्तस्व (त्रिषन्धेः) म० २। कर्मोपासनाज्ञानेषु कुशलस्य सेनापतेः (सह) (सेनया) ॥
विषय
शितिपदी-चतुष्पदी
पदार्थ
१. (शितिपदी) = [शी o sharpen] तीव्र गतिवाली तीक्ष्ण चरणोंवाली, (इयम्) = यह चतुष्पदी [हस्त्यश्वरथपादात सेनाङ्गचतुष्टयम्] 'हाथी, घोड़े, रथ व पैदल' इन चारों सेनाओंवाली (शरव्या) = [शरौ कुशला] बाणविद्या में कुशल सेना (संद्यतु) = शत्रुओं का खण्डन करनेवाली हो। २. हे (कृत्ये) = शत्रुओं का छेदन करनेवाली सेने! तू त्रिषन्धेः सेनया सह-त्रिषन्धि की इस 'जल, स्थल व वायु सेना के साथ (अमित्रेभ्यः भव) = शत्रुओं के विनाश के लिए हो ['मशकाय धूमः' की भाँति यहाँ चतुर्थी का प्रयोग है]।
भावार्थ
सेना तीन गतिबाली हो, वह 'हाथी, घोड़े, रथ व प्यादों' से युक्त हो, बाणविद्या में कुशल हो, यह शत्रुओं का छेदन करनेवाली हो।
भाषार्थ
(शितिपदी) काले लोहे के पैरों वाली, (चतुष्पदी) चार पैरों वाली (इयम् शरव्या) यह शरव्या (सं द्यतु) सम्यक् प्रकार से शत्रु का क्षय करे। (कृत्ये) हे शत्रुदल का छेदन करने वाली शरव्ये ! (अमित्रेभ्यः भव) शत्रुओं के [संहार के] लिये तू हो, (त्रिषन्धेः सेनया सह) त्रिषन्धि की सेना के साथ।
टिप्पणी
[शिति = शुक्ल तथा कृष्ण। मन्त्र में कृष्ण अर्थ अभिप्रेत है। शरव्या के चार पैर अर्थात् पहिये हों, जोकि कृष्णायस् अर्थात् काले लोहे के हों। शयव्या द्वारा शत्रु को शरों द्वारा घेरा जाता है। शरव्या=शर (बाण) + व्येञ् संवरणे। सायणाचार्य ने शरव्या का अर्थ किया है "शरसमूहः" "पाशादिभ्योः य” (अष्टा० ४।२।४९) इति समूहार्थे यः) कृत्या=कृती छेदने। संद्यतु = सम् + दीङ् क्षये। त्रिषन्धि की सेना के साथ, शरव्या युद्ध भूमि में चलती है, अतः इस के चार पैरों अर्थात् पहियों का वर्णन हुआ है। शरव्या चार पैरों वाली तोप प्रतीत होती है]।
विषय
शत्रुसेना का विजय।
भावार्थ
(शितिपदी) श्वेत चरणवाली (इयम्) यह (शरव्या) शर = बाणों की पंक्ति अर्थात् बाणधारियों की फौज (चतुष्पदी) चार पदों वाली चतुरंगिणी सेना होकर (सं द्यतु) शत्रु का नाश करे। हे (कृत्ये) हिंसाकारिणी सेने ! तू (त्रिसन्धेः) त्रिसन्धिनामक अस्त्रधारी की सेना के साथ (अमित्रेभ्यः) शत्रुओं के नाश के लिये (भव) हो।
टिप्पणी
‘शितिपदी से पततु’ इति सायणाभिमतः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृग्वङ्गिरा ऋषिः। मन्त्रोक्तस्त्रिषन्धिर्देवता। १ विराट् पथ्याबृहती, २ त्र्यवसाना षट्पा त्रिष्टुब्गर्भाति जगती, ३ विराड् आस्तार पंक्तिः, ४ विराट् त्रिष्टुप् पुरो विराट पुरस्ताज्ज्योतिस्त्रिष्टुप्, १२ पञ्चपदा पथ्यापंक्तिः, १३ षट्पदा जगती, १६ त्र्यवसाना षट्पदा ककुम्मती अनुष्टुप् त्रिष्टुब् गर्भा शक्वरी, १७ पथ्यापंक्तिः, २१ त्रिपदा गायत्री, २२ विराट् पुरस्ताद बृहती, २५ ककुप्, २६ प्रस्तारपंक्तिः, ६-११, १४, १५, १८-२०, २३, २४, २७ अनुष्टुभः। सप्तविंशत्यृचं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
(शितिपदी शरव्या) तीक्ष्ण पद-पत्रफलक़ वाली वाणी की शृङ्खला “शिञ् निशाने” (स्वादि०) (संद्यतु) शत्रुसेना के खण्ड खण्ड कर (इयं चतुष्पदी) चार पदों विभागों वाली पैदल, घोड़ सवार, हाथी वाली यान वाली, जल सेना नभ सेना तथा (कृत्ये) हे कृत्ये काटने वाली उड़नशील-सूक्ष्म शस्त्रशक्ति ! "कृत्यामुत्पादयामासुर्ज्यालामालोज्वलाकृतिम्" तू भी (त्रिषन्धेः सेनया सह) त्रिषन्धि-स्फोटक अस्त्र या उसके प्रयोक्ता की सेना के साथ (अमित्रेभ्यः-भव ) शत्रुओं के लिए हो ॥६॥
विशेष
ऋषिः-भृग्वङ्गिराः (भर्जनशील अग्निप्रयोगवेत्ता) देवता – त्रिषन्धिः ( गन्धक, मनः शिल, स्फोट पदार्थों का अस्त्र )
इंग्लिश (4)
Subject
War, Victory and Peace
Meaning
Let this four stage white and black mounted rocket to fire the missiles destroy the targets. O destroyer, alongwith the forces of Trisandhi, be monitored for the destruction of the enemies.
Translation
Let the white-footed one tie: together, this shaft (Saravya), four footed: O witchcraft, be thou for our enemies, together with the army of Trisandhi.
Translation
Let this white footed, four-footed row or arrows destroy the enemies. Let this prove and to be artificial device for the destruction with the army equipped with thundering weapon (Trisandhi).
Translation
May this army, that marches in day-time and night, is entitled to fourfold progress, and knows the science of archery, destroy the enemy. O destructive army, be ready to kill the foe, with the host of the general devoted to duty, devotion and knowledge.
Footnote
Four-fold: Dharma (Religion) Artha (Wealth) Kama (Fulfillment of ambition) Moksha (Emancipation).
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६−(शितिपदी) अ० ३।२९।१। कुम्भपदीषु च। पा० ५।४।१३९। पादस्य लोपो ङीप् च। पादः पत्। पा० ६।३।१३०। पदादेशः। शितिः शुक्लः कृष्णश्च तयोर्मध्ये पादो गमनं तस्याः सा तथाभूता। प्रकाशान्धकारमध्यगतिशीला सेना (सम्) सम्यक् (द्यतु) दो अवखण्डने। छिनत्तु (शरव्या) अ० ३।१९।८। तत्र साधुः। पा० ४।४।९८। शरु-यत्। शरौ वाणविद्यायां कुशला (इयम्) (चतुष्पदी) अ० ९।१०।२१। चतुर्वर्गे धर्मार्थकाममोक्षेषु पुरुषार्थेषु पदमधिकारो यस्याः सा (कृत्ये) अ० ४।९।५। ऋदुपधाच्चाक्लृपिचृतेः। पा० ३।१।११०। कृती छेदने-क्यप्। हे छेदनशीले। (अमित्रेभ्यः) क्रियार्थोपपदस्य च कर्मणि स्थानिनः। पा० २।३।१४। इति चतुर्थी। शत्रून् नाशयितुम् (भव) वर्तस्व (त्रिषन्धेः) म० २। कर्मोपासनाज्ञानेषु कुशलस्य सेनापतेः (सह) (सेनया) ॥
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