अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 9
ऋषिः - भृग्वङ्गिराः
देवता - त्रिषन्धिः
छन्दः - पुरोविराट्पुरस्ताज्ज्योतिस्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
38
यामिन्द्रे॑ण सं॒धां स॒मध॑त्था॒ ब्रह्म॑णा च बृहस्पते। तया॒हमि॑न्द्रसं॒धया॒ सर्वा॑न्दे॒वानि॒ह हु॑व इ॒तो ज॑यत॒ मामुतः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयाम् । इन्द्रे॑ण । स॒म्ऽधाम् । स॒म्ऽअध॑त्था: । ब्रह्म॑णा । च॒ । बृ॒ह॒स्प॒ते॒ । तया॑ । अ॒हम् । इ॒न्द्र॒ऽसं॒धया॑ । सर्वा॑न् । दे॒वान् । इ॒ह । हु॒वे॒ । इ॒त: । ज॒य॒त॒ । मा । अ॒मुत॑: ॥१२.९॥
स्वर रहित मन्त्र
यामिन्द्रेण संधां समधत्था ब्रह्मणा च बृहस्पते। तयाहमिन्द्रसंधया सर्वान्देवानिह हुव इतो जयत मामुतः ॥
स्वर रहित पद पाठयाम् । इन्द्रेण । सम्ऽधाम् । सम्ऽअधत्था: । ब्रह्मणा । च । बृहस्पते । तया । अहम् । इन्द्रऽसंधया । सर्वान् । देवान् । इह । हुवे । इत: । जयत । मा । अमुत: ॥१२.९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(बृहस्पते) हे बृहस्पति ! [बड़े-बड़ों के रक्षक राजन्] (यां सन्धाम्) जिस प्रतिज्ञा को (इन्द्रेण) प्रत्येक जीव के साथ (च) और (ब्रह्मणा) ब्रह्म [परमात्मा] के साथ (समधत्थाः) तूने ठहराया है। (अहम्) मैं [प्रजाजन] (तया) उस (इन्द्रसन्धया) प्राणियों के साथ प्रतिज्ञा से (सर्वान्) सब (देवान्) विजय चाहनेवाले लोगों को (इह) यहाँ (हुवे) बुलाता हूँ−“(इतः) इस ओर से (जयत) जीतो, (अमुतः) उस ओर से (मा) मत [जीतो]” ॥९॥
भावार्थ
जैसे राजा प्राणियों की रक्षा के लिये परमात्मा को साक्षी करके प्रतिज्ञा करता है, वैसे ही प्रजागण निष्कपट होकर अपने वीरों से उसका सहाय करें और वैरियों से न मिलें ॥९॥
टिप्पणी
९−(याम्) इन्द्रेण प्रत्येकजीवेन सह (सन्धाम्) प्रतिज्ञाम् (समधत्थाः) सम्यग् धारितवानसि (ब्रह्मणा) परमात्मना सह (च) (बृहस्पते) हे बृहतां रक्षक, राजन् (इन्द्रसन्धया) प्राणिभिः प्रतिज्ञया (सर्वान्) (देवान्) विजिगीषून् (इह) अत्र (हुवे) आह्वयामि (इतः) अस्मात् स्थानात् (जयत) जयं कुरुत (मा) निषेधे (अमुतः) तस्मात् स्थानात्। शत्रुपक्षात् ॥
विषय
इन्द्रसन्धा
पदार्थ
१. हे (बृहस्पते) = बृहतीसेना के पति! (यां सन्धाम्) = जिस प्रतिज्ञा का (इन्द्रेण ब्रह्मणा च) = मुझ शत्रुविद्रावक राजा तथा राष्ट्र के ज्ञानियों के साथ (समधत्था:) = आपने संधारित किया है, (अहम्) = मैं इस राष्ट्र का शासक (तया इन्त्रसंधया) = उस राजा के द्वारा की गई प्रतिज्ञा के हेतु से (सर्वान् देवान्) = सब विजिगीषुओं को (इह) = यहाँ (हुवे) = पुकारता हूँ। हे देवो! आप (इत: जयत) = इन हमारी सेनाओं में जय को स्थापित करो (मा अमुत:) = उन शत्रुसेनाओं में नहीं।
भावार्थ
राजा प्रजा के चुने हुए ज्ञानी पुरुषों के साथ प्रजारक्षण की प्रतिज्ञा करता है। उस प्रतिज्ञा की पूर्त्यर्थ वह विजिगीषु पुरुषों को आमन्त्रित करता है और शत्रुओं को पराजित कर राष्ट्र का रक्षण करता है।
भाषार्थ
(बृहस्पते) हे सेना के अधिपति त्रिषन्धि ! तूने (इन्द्रेण) मुझ सम्राट् के साथ (च) और (ब्रह्मणा) हमारे महामन्त्री के साथ (याम्) जिस (संधाम) सन्धि को किया है, (तया) उस (इन्द्रसंधया) इन्द्रसन्धि के द्वारा (अहम्) मैं इन्द्र (सर्वान् देवान्) सन्धि वाले तीन राष्ट्रों के सब विजिगीषु योद्धाओं को (इह) इस युद्ध में (हुवे) बुलाता हूं, और उन्हें कहता हूं कि (इतः जयत) इस ओर से विजय प्राप्त करो, (अमुतः मा) उस शत्रु पक्ष से नहीं, अर्थात शत्रु के साथ मिलकर उन की विजय न कराना। अथवा देखो मन्त्र (१४) की व्याख्या।
विषय
शत्रुसेना का विजय।
भावार्थ
हे (बृहस्पते) बृहस्पते ! वेद के विद्वान् ! (याम् संधाम्) जिस संधा, प्रतिज्ञा को (इन्द्रेण ब्रह्मणा च) इन्द्र राजा, और ब्रह्म के ज्ञानी विद्वान् ब्राह्मण के साथ (सन् अवत्थाः) तू संधि कर लेता है (तया) इस (इन्द्रसंघया) राजा के साथ की हुई सन्धि या प्रतिज्ञा के अनुसार (अहम्) मैं (सर्वान् देवान्) सब करपद राजाओं को (इह हुवे) यहां बुलाता हूं और आज्ञा देता हूं कि (इतः जयत) इस इस दिशा में विजय करो और (अमुतः) अमुक अमुक दिशाओं में विजय मत करो।
टिप्पणी
‘समधत्ता’ इति क्वचित्, सायणाभिमतश्च।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृग्वङ्गिरा ऋषिः। मन्त्रोक्तस्त्रिषन्धिर्देवता। १ विराट् पथ्याबृहती, २ त्र्यवसाना षट्पा त्रिष्टुब्गर्भाति जगती, ३ विराड् आस्तार पंक्तिः, ४ विराट् त्रिष्टुप् पुरो विराट पुरस्ताज्ज्योतिस्त्रिष्टुप्, १२ पञ्चपदा पथ्यापंक्तिः, १३ षट्पदा जगती, १६ त्र्यवसाना षट्पदा ककुम्मती अनुष्टुप् त्रिष्टुब् गर्भा शक्वरी, १७ पथ्यापंक्तिः, २१ त्रिपदा गायत्री, २२ विराट् पुरस्ताद बृहती, २५ ककुप्, २६ प्रस्तारपंक्तिः, ६-११, १४, १५, १८-२०, २३, २४, २७ अनुष्टुभः। सप्तविंशत्यृचं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
(बृहस्पते) हे शस्त्रास्त्र प्रक्षेपण विद्या के आचार्य ! (यां सन्धाम्) जिस सङ्कल्पित भावना प्रतिज्ञा को (इन्द्रेण ब्रह्मणा च) इन्द्र अपने शिष्य और ब्रह्मा अपने गुरु के साथ रहकर (समधत्था) तूने पूरा किया या तू पूरा करता है (इन्द्र तया सन्धया) इन्द्र उसी सङ्कल्पित भावना प्रतिज्ञा से (अहं सर्वान् देवान्) मैं सब देवों-विजिगिषु जनों-संग्राम में शस्त्रास्त्र प्रक्षेपक विद्वानों को (इह हुवे) इस संग्राम में बुलाता हूं (इतः-जयत) इस हमारे पक्ष की ओर से शत्रुओं को जीतो (अमुतः-मा) उस शत्रुपक्ष की ओर से न जीतो ॥९॥
विशेष
ऋषिः-भृग्वङ्गिराः (भर्जनशील अग्निप्रयोगवेत्ता) देवता – त्रिषन्धिः ( गन्धक, मनः शिल, स्फोट पदार्थों का अस्त्र )
इंग्लिश (4)
Subject
War, Victory and Peace
Meaning
O Brhaspati, lord of the universe and universal Word, the harmonious Dharmic synthesis which you have established with and between Indra and Brahma, that is, power, and vision of wisdom and knowledge, with that practical union and compromise in real life, I, Indra, the ruler, call upon all the devas, brilliant people and say : Win here and not any other-where.
Translation
The agreement (samdha) which thou hast agreed on with Indra and with the brahman, O Brhaspati, by that Indra agreement do I call hither all the gods; conquer ye on this side, not on that.
Translation
By the binding treaty which the master of vedic speech and knowledge makes with a powerful ruler and with the man having mastery over all four vedas, I, the king call all the learned men here and tell them” conquer in this direction, not in other yonder side.
Translation
O King! by the same vow which thou hast made with man and with God, by man's pledge I bid the conquest-loving warriors come hither, and ask them to fight for conquest on this side, not on the yonder side of the enemy.
Footnote
The king makes a vow with God and with each of his subjects to protect and advance his country. I: A general.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
९−(याम्) इन्द्रेण प्रत्येकजीवेन सह (सन्धाम्) प्रतिज्ञाम् (समधत्थाः) सम्यग् धारितवानसि (ब्रह्मणा) परमात्मना सह (च) (बृहस्पते) हे बृहतां रक्षक, राजन् (इन्द्रसन्धया) प्राणिभिः प्रतिज्ञया (सर्वान्) (देवान्) विजिगीषून् (इह) अत्र (हुवे) आह्वयामि (इतः) अस्मात् स्थानात् (जयत) जयं कुरुत (मा) निषेधे (अमुतः) तस्मात् स्थानात्। शत्रुपक्षात् ॥
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