अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 17
ऋषिः - भृग्वङ्गिराः
देवता - त्रिषन्धिः
छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
43
यदि॑ प्रे॒युर्दे॑वपु॒रा ब्रह्म॒ वर्मा॑णि चक्रि॒रे। त॑नू॒पानं॑ परि॒पाणं॑ कृण्वा॒ना यदु॑पोचि॒रे सर्वं॒ तद॑र॒सं कृ॑धि ॥
स्वर सहित पद पाठयदि॑ । प्र॒ऽई॒यु: । दे॒व॒ऽपु॒रा: । ब्रह्म॑ । वर्मा॑णि । च॒क्रि॒रे । त॒नू॒ऽपान॑म् । प॒रि॒ऽपान॑म् । कृ॒ण्वा॒ना: । यत् । उ॒प॒ऽऊ॒चि॒रे । सर्व॑म् । तत् । अ॒र॒सम् । कृ॒धि॒ ॥१२.१७॥
स्वर रहित मन्त्र
यदि प्रेयुर्देवपुरा ब्रह्म वर्माणि चक्रिरे। तनूपानं परिपाणं कृण्वाना यदुपोचिरे सर्वं तदरसं कृधि ॥
स्वर रहित पद पाठयदि । प्रऽईयु: । देवऽपुरा: । ब्रह्म । वर्माणि । चक्रिरे । तनूऽपानम् । परिऽपानम् । कृण्वाना: । यत् । उपऽऊचिरे । सर्वम् । तत् । अरसम् । कृधि ॥१२.१७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(यदि) जो [शत्रुओं ने] (देवपुराः) राजा के नगरों पर (प्रेयुः) चढ़ाई की है, और (ब्रह्म) हमारे धन को (वर्माणि) अपने रक्षासाधन (चक्रिरे) बनाया है। (तनूपानम्) हमारे शरीर रक्षासाधन को (परिपाणम्) अपना रक्षासाधन (कृण्वानाः) बनाते हुए उन लोगों ने (यत्) जो कुछ (उपोचिरे) डींग मारी है, (तत् सर्वम्) उस सबको (अरसम्) नीरस वा फींका (कृधि) कर दे ॥१७॥
भावार्थ
राजा उपद्रवी शत्रुओं को जीत कर प्रजा की सदा रक्षा करे ॥१७॥यह मन्त्र आ चुका है-अथर्व० ५।८।६ ॥
टिप्पणी
१७−अयं मन्त्रो व्याख्यातः-अ० ५।८।६ ॥
विषय
देवों का ब्रह्मरूप वर्म
पदार्थ
१. (यदि) = [यदा] जब (देवपुरा:) = देवनगरियों में निवास करनेवाले व्यक्ति (प्रेयु:) = शत्रु पर आक्रमण के लिए चलते हैं तब (ब्रह्म वर्माणि चक्रिरे) = ज्ञान को व प्रभु को अपना कवच बनाते हैं। इस ब्रह्मकवच से ये अपना रक्षण करनेवाले होते हैं। २. ज्ञानपूर्वक तथा प्रभुस्मरणपूर्वक (तनूपानम्) = अपने शरीरों का रक्षण तथा (परिपाणम्) = समन्तात् राष्ट्र का रक्षण (कृण्वाना:) = करते हुए ये (सर्व तत् अरसं कृधि) = उस सबको नि:सार कर देते हैं, (यत्) = जो (उप अचिरे) = हमारे विषय में शत्रुओं ने हीन बातें कही है। शत्रुओं की अभिमान भरी बातों को, उन्हें परास्त करके, ये व्यर्थ कर देते हैं।
भावार्थ
देवलोग प्रभु को अपना कवच बनाकर शत्रु पर आक्रमण करते हैं। शत्रुओं को परास्त करके ये उनकी डींगों को समाप्त कर देते हैं।
भाषार्थ
(यदि देवपुराः) यदि हम देवों के पुरा अर्थात् नगरों या दुर्गों में (प्रेयुः) शत्रु अर्थात् असुर पहुंच गए हैं, और (ब्रह्म) हमारे धनों और अन्नों को उन्होंने (वर्माणि) अपने कवच रूप में (चक्रिरे) कर लिया है, और (तनूपानम्) अपने देहों की रक्षा तथा (परिमाणम्) सब प्रकार के खान पान को (कृण्वानाः) करते हुए (यद्) जो वे (उप ऊचिरे) गुप्त बातें करते हैं (तत् सर्वम्) उस सबको हे अर्बु दि! तू (अरसम्) रस रहित कर, विफल कर।
टिप्पणी
[देवपुराः= देव पुर् + टाप् (टापं चैव हलन्तानाम्) + द्वि. वि. बहुवचन। तनूपानम् =तनू +पा (रक्षणे)। परिपाणम्= परि + पा (पाने), खाना-पीना। असुर भक्ष्या-भक्ष्य का विचार न कर सब कुछ खाते-पीते हैं। ब्रह्म= धननाम (निघं० २।१०); अन्ननाम (निघं० २।७)। अरसम्= रस रहित वृक्ष, सूख कर फलविहीन हो जाता है इसी प्रकार असुरों को विफल कर देना। मन्त्र में त्रिषन्धि, अर्बुदि को आदेश देता है। प्रेयुः= तीन मित्रराष्ट्रों की संयुक्त सेना, त्रिषन्धि के संचालन में, असुरों के साथ युद्ध में व्यापृत है। संयुक्त सेना को भेद कर आसुरी सेना देवपुरों में प्रवेश नहीं पा सकती। युद्धव्यापृत संयुक्त सेना से रहित हुए देवपुरों को जान कर, किसी छद्म प्रकार से किसी मार्ग द्वारा यदि आसुरी सेना देवपुरों में पहुंच गई है तो उस अवस्था का वर्णन मन्त्र में हुआ है]। [१. इन्द्रः= सम्राट् “इन्द्रश्च सम्राट् वरुणश्च राजा" (यजु० ८।३७) बृहस्पतिः= बृहती सेना तस्याः पतिः। यज्ञः = यज् संगतिकरणे। शत्रु सेनया सह युद्धार्थ स्वसेनायाः संगमकर्ता सेनाध्यक्षः। सोमः= सेनाप्रेरकः (षू प्रेरणे) देवसेना= विजिगीषूणां स्वसैनिकानां सेना।]
विषय
शत्रुसेना का विजय।
भावार्थ
(यदि) यदि शत्रु लोग (देवपुराः) देव, वायु आदि तत्वों के विज्ञाताओं से परिपालित होकर (प्रेयुः) हम पर आ चढ़ें और (ब्रह्म वर्माणि चक्रिरे) वेद के विज्ञान के अनुसार ही अपने रक्षा के साधन करते हैं और (यदि) यदि (तनूपानं) अपने शरीर की रक्षा को और (परिपाणं) सब प्रकार की रक्षा को (कृण्वानाः) करते हुए (उपोचिरे) हम तक पहुंचते हैं तो हे राजन् ! (तत् सर्वं) उस सब को भी तू (अरसं कृधि) निर्बल कर दे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृग्वङ्गिरा ऋषिः। मन्त्रोक्तस्त्रिषन्धिर्देवता। १ विराट् पथ्याबृहती, २ त्र्यवसाना षट्पा त्रिष्टुब्गर्भाति जगती, ३ विराड् आस्तार पंक्तिः, ४ विराट् त्रिष्टुप् पुरो विराट पुरस्ताज्ज्योतिस्त्रिष्टुप्, १२ पञ्चपदा पथ्यापंक्तिः, १३ षट्पदा जगती, १६ त्र्यवसाना षट्पदा ककुम्मती अनुष्टुप् त्रिष्टुब् गर्भा शक्वरी, १७ पथ्यापंक्तिः, २१ त्रिपदा गायत्री, २२ विराट् पुरस्ताद बृहती, २५ ककुप्, २६ प्रस्तारपंक्तिः, ६-११, १४, १५, १८-२०, २३, २४, २७ अनुष्टुभः। सप्तविंशत्यृचं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
(यदि देवपुराः प्रेयुः) यदि शत्रु जन पूर्वोक्त वायु आदि देवों की पुरियों-अत्र स्थलियों को प्राप्त हों उन पर आक्रमण करने को आवें (ब्रह्म वर्माणि चक्रिरे) ब्रह्मास्त्रों को प्रहार वारणर्थ कवचों को सम्पन्न कर चुके हुए (तनूपानं परिपाणं कृण्वानाः) शरीररक्षण साधन अपने चारों ओर के रक्षा साधन को करते हुए (यत्-उपोचिरे) जब कि ललकारें (सर्व-तत्-रसं कृधि) उस सब को राजन् ! नीरस-प्राणहीन करदे ॥१७॥
विशेष
ऋषिः-भृग्वङ्गिराः (भर्जनशील अग्निप्रयोगवेत्ता) देवता – त्रिषन्धिः ( गन्धक, मनः शिल, स्फोट पदार्थों का अस्त्र )
इंग्लिश (4)
Subject
War, Victory and Peace
Meaning
If they reach our holy peaceful cities, use our own knowledge, food or holy people or holy things for defence and offence, thus protecting their persons and enacting their all-round defence, turn all that effort to naught.
Translation
If they have gone forward to the god’s strongholds, have made the brahman their defenses; if (? yat) they have encouraged (? ‘upa-vac) themselves, making a bodyprotection, a complete protection all that do thou make sapless.
Translation
O Commanding Chief if the enemies make strong-hold of the physical forces (against us) and through science produce effective means of shelter, taking all steps for the shelter of their persons and their populations and organize them, conquer them and take these enemies under your control.
Translation
If they have attacked the citadels of kings, prepared their armours through knowledge, gained protection for their bodies, and everything else, and are organising and consolidating themselves, O King! make all their designs powerless.
Footnote
They: The enemies. See Atharva. 5-8-6.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१७−अयं मन्त्रो व्याख्यातः-अ० ५।८।६ ॥
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