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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 10 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 14
    ऋषिः - भृग्वङ्गिराः देवता - त्रिषन्धिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
    40

    सर्वे॑ दे॒वा अ॒त्याय॑न्ति॒ ये अ॒श्नन्ति॒ वष॑ट्कृतम्। इ॒मां जु॑षध्व॒माहु॑तिमि॒तो ज॑यत॒ मामुतः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सर्वे॑ । दे॒वा: । अ॒ति॒ऽआय॑न्ति । ये । अ॒श्नन्ति॑ । वष॑ट्ऽकृतम् । इ॒माम् । जु॒ष॒ध्व॒म् । आऽहु॑तिम् । इ॒त: । ज॒य॒त॒ । मा । अ॒मुत॑: ॥१२.१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सर्वे देवा अत्यायन्ति ये अश्नन्ति वषट्कृतम्। इमां जुषध्वमाहुतिमितो जयत मामुतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सर्वे । देवा: । अतिऽआयन्ति । ये । अश्नन्ति । वषट्ऽकृतम् । इमाम् । जुषध्वम् । आऽहुतिम् । इत: । जयत । मा । अमुत: ॥१२.१४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 10; मन्त्र » 14
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    हिन्दी (5)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (सर्वे) वे सब (देवाः) विजयी जन (अत्यायन्ति) यहाँ चले आते हैं, (ये) जो (वषट्कृतम्) भक्ति से सिद्ध किये हुए [अन्न आदि] को (अश्नन्ति) खाते हैं। [वे तुम] (इमाम्) इस (आहुतिम्) आहुति [बलि वा भेंट] को (जुषध्वम्) सेवन करो−“(इतः) इस ओर से (जयत) जीतो, (अमुतः) (उस ओर से (मा) मत [जीतो]” ॥१४॥

    भावार्थ

    जिस राज्य में सब लोग धर्म से अन्न आदि भोगते हों, वहाँ सब मिलकर शत्रुओं को न आने दें ॥१४॥इस मन्त्र का अन्तिम पाद-म० ९ में आया है ॥

    टिप्पणी

    १४−(सर्वे) (देवाः) विजिगीषवः (अत्यायन्ति) इण् गतौ। मार्गानतिक्रम्यागच्छन्ति (ये) (अश्नन्ति) भुञ्जते (वषट्कृतम्) अ० ९।५।१३। भक्त्या निष्पादितम् (इमाम्) (जुषध्वम्) सेवध्वम् (आहुतिम्) भक्त्या समर्पणम्। अन्यद् गतम्-म० ९ ॥

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    विषय

    यज्ञशीलता व आन्तर शत्रुविजय

    पदार्थ

    १. (ये) = जो (वषट्कृतम्) = यज्ञ में वषट्शब्दोच्चारण पूर्वक आहुत किये हुए यज्ञशेष को ही (अश्नन्ति) = खाते हैं, वे (सर्वे) = सब (देवाः) = देववृत्ति के व्यक्ति (अत्यायन्ति) = काम-क्रोध आदि शत्रुओं का अतिक्रमण करके प्रभु के सम्मुख उपस्थित होते हैं। २. इसलिए हे समझदार पुरुषो! (इमां आहुतिं जुषध्वम्) = इस आहुति का सेवन करनेवाले बनो। इस यज्ञशीलता के द्वारा (इत: जयत) = इधर से विजय प्राप्त करो, अर्थात् शरीरस्थ शत्रुओं को जीतने में समर्थ होओ। (मा अमुत:) = दूर से बाहर से विजय करनेवाले ही न बनो। बाह्यशत्रुओं को जीतने का वह महत्त्व नहीं, जोकि अन्त:शत्रुओं को जीतने का महत्त्व है।

    भावार्थ

    हम यज्ञशील बनकर अन्तः शत्रुओं के विजेता बनें । बाह्यशत्रुओं के विजय से ही अपने को कृतकृत्य न मान बैठे।

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    भाषार्थ

    (सर्वे) सब (देवाः) विजिगीषु सैन्याधिकारी, (अति) निज स्थानों को छोड़ कर, (आयन्ति) युद्धार्थ आते हैं, (ये) जोकि (वषट्-कृतम्) राष्ट्र रक्षा-यज्ञ में "वषट्" शब्दोच्चारण पूर्वक दी गई आहुति का (अश्नन्ति) भोजन करते हैं। हे सैन्याधिकारीदेवों ! (इमाम् आहुतिम्) इस आहुति का (जुषध्वम्) प्रीतिपूर्वक सेवन करो, (इतः) इधर से अर्थात् अपनी राष्ट्र भूमि की ओर से (जयत) विजय प्राप्त करो, (अमुतः) उस शत्रु की भूमि की ओर से (मा) नहीं।

    टिप्पणी

    [देवाः = विजिगीषु, सैन्यविभागों के अधिकारी, "दिवु क्रीड़ा विजिगीषा व्यवहार आदि”। वषट्कृतमश्नन्ति= यज्ञों में याज्या मन्त्र के अन्त में "वषट्" शब्द का उच्चारण कर आहुति दी जाती है, अग्निहोत्र आदि में "स्वाहा" का उच्चारण कर के आहुति दी जाती है। अभिप्राय यह कि जो सैन्य विभागाधिकारी अल्प वेतन लेकर अपना निर्वाह करते हैं, जितने परिमाण की आहुति यज्ञाग्नि में दी जाती है अर्थात् जोकि राष्ट्रसेवा करने में धनार्जन की भावना से प्रेरित नहीं होते, वे इस युद्ध के निमित्त आवें। मा, अमुतः= शत्रुराष्ट्र की भूमि में घुस कर उधर से, और अपने राष्ट्र की भूमि से, अर्थात् दोनों ओर से, शत्रु को घेर कर युद्ध करने का निषेध किया है। शत्रुराष्ट्र की भूमि में युद्ध के समय घुसने पर अपनी प्रविष्ट हुई सेना के घिर जाने की आशङ्का रहती है तथा देखो मन्त्र (९)]

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    विषय

    शत्रुसेना का विजय।

    भावार्थ

    (ये देवाः) जो देव, विद्वान्गण, राजगण (वषट्कृतम्) यज्ञ के पवित्र अन्न भाग को (अश्नन्ति) खाते हैं वे (सर्वे) सब (अति आयन्ति) शत्रुओं को अतिक्रमण करके हमारे पास आते हैं ! हे देवगण ! राजा गण (इमां आहुतिम् जुषध्वम्) हमारी इस आहुति को सेवन करो, (इतः जयत) इधर से विजय करो (मा अमुतः) उस शत्रुपक्ष की तरफ़ से मत लड़ा।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृग्वङ्गिरा ऋषिः। मन्त्रोक्तस्त्रिषन्धिर्देवता। १ विराट् पथ्याबृहती, २ त्र्यवसाना षट्पा त्रिष्टुब्गर्भाति जगती, ३ विराड् आस्तार पंक्तिः, ४ विराट् त्रिष्टुप् पुरो विराट पुरस्ताज्ज्योतिस्त्रिष्टुप्, १२ पञ्चपदा पथ्यापंक्तिः, १३ षट्पदा जगती, १६ त्र्यवसाना षट्पदा ककुम्मती अनुष्टुप् त्रिष्टुब् गर्भा शक्वरी, १७ पथ्यापंक्तिः, २१ त्रिपदा गायत्री, २२ विराट् पुरस्ताद बृहती, २५ ककुप्, २६ प्रस्तारपंक्तिः, ६-११, १४, १५, १८-२०, २३, २४, २७ अनुष्टुभः। सप्तविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (सर्वे देवा:) सब विजिगीषु जन (अत्यायन्ति) दुष्मार्ग को पार कर आते हैं (ये वशट् कृतम्-अश्नान्ति) जो संग्राम यज्ञ में वज्र प्रहार से किये - प्राप्त शत्रु यह बल का भोजन करते हैं "वज्रो वै वषटकारः" (ए० ३।८) (इमाम् आहुतिं जुषध्वम्) इस त्रिषन्धि वज्र की संग्राम यज्ञ में आहुति का सेवन करें प्रयोग करें संग्राम में छोड़े हुए (इत:-जयत) इस हमारे पक्ष की ओर से जय करें (अमुतः मा) उस शत्रु पक्ष की ओर से नहीं ॥१४॥

    विशेष

    ऋषिः-भृग्वङ्गिराः (भर्जनशील अग्निप्रयोगवेत्ता) देवता – त्रिषन्धिः ( गन्धक, मनः शिल, स्फोट पदार्थों का अस्त्र )

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    War, Victory and Peace

    Meaning

    All the divines come here to the triple centre- hold of life and victory and receive the fruits of yajnic service performed with Vedic formula of Vashat. O Devas, enjoy this offer and win your self-fulfilment here, not there on the other side of loss and negativity.

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    Translation

    All the gods come over hither, who partake of (the offering) made with vasat; enjoy ye this offering; conquer ye on this side, not on that.

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    Translation

    May all the luminous and wonderful forces which consume the oblation offered in the Yajna (with vasat) over powers the miseries. Let them accept our oblation and conquer on hither not that side.

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    Translation

    Over to us come all the learned persons who eat the hallowed remnants of the sacrifice trampling down the foe. With this offering of ours, be ye pleased; fight for victory on this side, not on the yonder side of the enemy.

    Footnote

    This side: Our side.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १४−(सर्वे) (देवाः) विजिगीषवः (अत्यायन्ति) इण् गतौ। मार्गानतिक्रम्यागच्छन्ति (ये) (अश्नन्ति) भुञ्जते (वषट्कृतम्) अ० ९।५।१३। भक्त्या निष्पादितम् (इमाम्) (जुषध्वम्) सेवध्वम् (आहुतिम्) भक्त्या समर्पणम्। अन्यद् गतम्-म० ९ ॥

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